भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूख / आशुतोष सिंह 'साक्षी'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमारे अन्तःकरण की सारी किरणें
सिमट चुकी हैं॥

हृदय के पन्नों से प्रेम की सारी लिखावटें
मिट चुकी हैं॥

और मन के कोमल पौधों की जड़ें भी
कट चुकी हैं॥

फिर भी हम सब ज़िंदा हैं
जानते हो क्यों?

क्योंकि मन के संवेदना
भूख की वेदना से हार जाती है॥



शीर्षक- ले लो प्रिया

जाड़े में धूप की तरह,
गर्मी में छाँव की तरह,
तुम मेरे जीवन में आई प्रिया॥

सुबह के कमल की तरह,
ओस के निर्मल बूँदों की तरह,
तुम एकदम पवित्र थी प्रिया॥

दिया में बाती की तरह,
सीप में मोती की तरह,
तुमने मेरा मान बढ़ाया प्रिया।

पर मैं तुम्हारे निश्छल स्नेह को,
पहचान न सका,
प्रेम के धागे में मोती पिरो न सका॥

अफ़वाहों की एक-दो आँधियों में,
बुझने लगा हमारे प्रेम का दिया॥

रहकर भी इतने करीब मैं,
क्यों न जान सका तुमको प्रिया॥

मैं तुम्हें दोष नहीं दे रहा,
था इसमें मेरा भी कसूर प्रिया॥

कही हवा के झोंकों से बुझ न जाये दिया,
ले सको तो ले लो इसे अपने ही ओट में प्रिया॥