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भूख / सुकुमार चौधुरी / मीता दास
Kavita Kosh से
झुके हुए गरम छप्पर के नीचे
सर झुकाकर हम लिफ़ाफ़े बनाते थे
लिफ़ाफ़ों का ढेर, पहाड़-सा बन जाता
हम थक जाते।
बीच-बीच में माँ हमें गुड़ की चाय पिला देती
चाय पीते-पीते कभी-कभी
मेरी आँखें धुन्धला जातीं
मै अपनी भूख की तरह बेअक़ल
बड़ा-सा पहाड़
देख पाता आँखों के सामने
ख़ाली लिफ़ाफ़े की तरह
पिचकता जा रहा मेरे भाई-बहनों का पेट
मेरी माँ कह उठती, अचानक
जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ, बच्चो !
दुकान बन्द हो जाएगी ....
मूल बांग्ला से अनुवाद — मीता दास