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भूख / सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त'
Kavita Kosh से
भूख वह धधकती आग है
जो जलती तो ज़रूर
लेकिन दिखती नहीं
गरीबों की आह बनकर ही सही
लेकिन निकलती पेट से ही है।
जाने इसकी आग में
कितने बदनसीब जल गए
न जाने कितने और मरेंगे
खुदा ने गरीबों के हिस्से में
पेट का खाली कटोरा दे दिया
भरते रहे इसे अब
भूख की आग से
जब तक वे जल न जाए
जब तक वे मर न जाए
भूख के पन्नों पर
आज जुर्म लिखा है
कहीं खून कहीं चोरी
आज यही दिख रहा है
आज के ज़माने में
भूख जो करा दे
वही काम है
या खुदा तेरी दुनिया में
यह कैसा सितम है।