आजकल सुख के बीच
दो-चार धक्के लग ही जाते हैं
जानता हूँ वे यहीं हैं
सरसराकर कहती दोपहर की हवा
वे तैयार बैठे हैं
इसी घर के कोने में
हाथ में ढेले लिए
जाग्रत, गोलबंद
फुसफुसा-फुसफुसा कर फुसलाते
लिए जाते अपने अख़ाड़े में
चारों ओर है उनकी भूत गंध
आकाश का आलोक मेरे मन में
टप्प से बुझा जाता मन ही मन
मनुष्य के लिए
समाप्त हैं अब सद्भाव की सारी सम्भावनाएँ।
अनुवाद : राजेन्द्र शर्मा