भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूत प्रेत भागै छै / कस्तूरी झा 'कोकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धर्म प्रधान देश छै आपनों
रीति रिबाज अनोखा छै।
वेद पुराण रेॅ सीख सुनहला
दुनिया में नैं धोखा छै।
नर-नारी के मधुर मिलन ही
यहाँ विवाह कहलाबै छै।
कच्चा धागा कैॅ बंधन सें
पति पत्नि हुलसाबै छै।
साक्षी, शंख, अग्नि, पुरोहित,
परिजन, पुरजन मुदित वहाँ।
नर नारी के मांग भरै छै,
दै केॅ सिन्दूर ललित वहाँ।
देह दू एक्केॅ आत्मा तब
जनम-जनम नै टूटै छै।
ऐहनों लाल रंग पक्का हो
कहियो टा नैं छूटै छै।
फकदोली चढ़ला सें पहिनेॅ
परिजन खूब सजाबै छै।
पति दै छै सिन्दूर माल में
आँसू नयन बहाबै छै।
भाग्यशालिनी वू महिला छै,
पाँव महावर लागै छै।
भूत प्रेत हुनखा देखी केॅ
सौ सौ जोजन भागै छै।
शेष सुहागिन दौड़ी-दौड़ी,
चरण पकड़ लै छै आशीश।
आपनैंहे नाँकी रहौं सुहागिन,
आँखीं से होय छै बारीश।
बाजा गाजा खूब बजै छै,
गायक गाबै छै निर्गुण
रामनाम केॅ सत्य कहै छै,
गीत नाद केॅ सातो धुन।
पैसा कौड़ी मेवा मुरही
सम्भैं खूब लुटाबै छै।
ओकरो किस्मत चकमक चकमक
जें जें पैसा पावै छै।
स्वर्गारोहण हुनकोॅ अनुपम
गंगा-तट चिता रचाबै छै
शेष अंश गंगा गोदी में?
आपनों जग्धोॅ पाबै छै।
परिजन, पुरजन, साथ कुटुम्बजन
श्राद्ध कर्म में लागै छै।
पूरा होय छै श्रद्धा पूर्वक,
प्राणी केॅ किस्मत जागै छै,
आदर सें गुणगान करै छै।
रही-रही कानै छै।
माँ, दादी, नानी केॅ बनतै?
ई रंग केॅ मानै छै?

16/07/015 अपराहन 2.15 से 3 बजे