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भूत / रफ़ीक सूरज
Kavita Kosh से
पहले शाम होते ही गाँव की हदों से बाहर
जाने में डर लगता था
वहाँ भूत मण्डराते हैं ऐसा लगता था!
अब गाँव के बाहर फैले बंजर में
घरों, कारख़ानों में राह बनाते
रात-बिरात भी बिना डरे घूमता हूँ..
फिर क्या यह कहा जाए कि भूत कम हो गए हैं
या फिर भूतों की आदत पड़ गई है
मराठी से हिन्दी में अनुवाद : भारतभूषण तिवारी