भूमिका (कला-कविता) / जी० शंकर कुरुप
कौतुक से सजीव कल्पना विश्व तथा मनुष्य जीवन को अपनी ओर खींचने तथा अपने बाहुपाश मे करने के लिये हाथ बढाती रहती है । इसलिए उस के हाथ बलिष्ठ होते हैं और उस की पहुंच दूर तक होती है । मन मे बिजली जैसी उठने वाली प्रक्रिया जब मनुष्य हृदय मे और विश्व हृदय मे भी अपनी प्रतिध्वनि सुनने के लिए मचलने लगती है तव हमे सर्वब्यापी एकता की अनुभूति होने लगती है ।कल्पना तथा मानसिक प्रक्रिया का यह कार्य जितना शक्तिशाली होता है उतना ही कलाकार का महत्त्व भो बढ़ता है । कवि हृदय एवं प्रकृति के बीच मधुर कल्पना तथा आर्द्र भाव युक्त संयोग से उत्पन्न होनेवाली अनुभूति का घनीभूत रूप ही कथावस्तु है । कल्पना कथावस्तु का प्राण है तो मानसिक प्रक्रिया है उसकी शिराओ मे दोड़्नेवाला जीव रक्त ! कल्पनासुरभित तथा भाव निर्मित इन कथावस्तुओं में प्रकृति तथा मानव आत्मा की छाप स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । यह छाप ही कलाकार का ब्यक्तित्व है, कथावस्तुओं का प्रकाश ही कला है । अपने कलात्मक जीवन की अनुभूतियों से कविता के संबंध में यही कुछ मैं समझ पाया हूँ ।
मेरे लिए कविता आत्मा का प्रकाश मात्र है । जैसे धूसर क्षितिज पर सन्ध्या की छवि प्रतिबिम्बित होती है वैसे ही बन्धुर छन्दों के पदबन्धो मे कवि का हृदय प्रतिबिम्बित होता है । इस आत्म प्रकाश से और कुछ बने या न बने किन्तु एक कलाकार के यह परमानन्द का कारण तो है ही । जैसे मन्द पवन हंस के पंखो को ऊपर उड़ा ले जाता है वैसे ही परमानन्द की यह अनुभूति एक कलाकार की आत्मा को भौतिक शरीर से परे उठा ले जाती है । प्राचीन मनुष्य द्वारा गुहा-भित्ति पर अंकित हिरन के चित्र को ही लीजिए । जब मनुश्य के हृदय से निकल कर वह हिरन अचल शिला पर दौड़ने लगा तब उस के साथ उस मनुष्य की आत्मा ने कितनी उड़ानें भरी होंगी । उस मनुष्य की अनुभूति का वह प्रतीक जब उस के मित्रों के हृदयों को भी पुलकित करने लगा तब ये भी उस के निकट खिंच आने लगे । इस प्रकार जो केवल एक व्यक्ति की आत्मा का प्रकाश था उस का एक सामाजिक मूल्य उत्पादन हो गया । एक कवि होने के कारण अपनी अनुभूतियों का प्रकाश ही मेरे लिए परमानन्द का विषय हैं । और यदि उस आनन्द का आस्वादन अन्य लोगों को भी करा सका तो वह मेरो विजय होगी । उस से मेरी कला को एक सामाजिक आधार मिलेगा । लोगो का उत्कर्ष अन्य लोगों के द्वारा हो अथवा मेरे द्वारा ! यह अनुभूति कैसी वांछनीय है और कितनी आत्म-संतृप्ति है उस में !
कबिता व्यक्तिगत अनुभवो का प्रकाश है । ’मुत्तुकळ’ नामक अपने कविता संग्रह मे मैंने अपनी यह धारणा प्रकट की थी । जीवन के यथार्थ अनुभवों के आघात से हृदय मे उत्पन्न होने वाली मधुर संवेदनाओं को कल्पना का आवरण पहना कर प्रकट करना ही रचना है । उस मे व्यक्ति की प्रधानता रहती है । इल्यूजन ऐण्ड रियलिटी’ नामक एक पुस्तक मैंने पढ़ी थी । उस पुस्तक मे उपर्युक्त कथन का प्रतिपादन यह प्रमाणित करने के लिए किया गया था कि कला व्यक्ति की नही समाज की सृष्टि है। ये दोनों बातें परस्पर विरोधी लगती हैं । किन्तु वास्तव मे हैं एक ही सत्य के दो पहलू । क्योकि ब्यक्तिगत अनुभव सामाजिक अनुभवों का अंग है और व्यक्ति सामाजिक परिस्थितियों की उपज है ।
मेरे गाँव के हरे मैदान, सुनहरे खेत, ग्राम्य हृदय मे मस्तक ऊँचा किये खडे रहने वाला प्राचीन मन्दिर, दरिद्रता मे डूबा हुआ प्रतिवेश, कवि कल्पना को अपने पास बुलाने वाली पहाड़ियाँ इन्हीं सबने मेरे हृदय को स्वप्नो से भर दिया था और फिर उन स्वप्नो को विविध रंगों से सजाया तथा वाणी देकर सजीव बनाया था । वह खेत जिस मे कंगनों-हँसियों की चमक दिखाई देती है, सिर पर धान का बोझा लिये चलने मे हाँफती हुई वे कृषक कन्यायें, अपनी झोपड़ी की ड्योढ़ियों पर बैठे रहने वाले पुलयंर, सन्ध्या के शान्तिपूर्ण वातावरण में मधुरता फैलाता हुआ मन्दिर से आना वाला शंखनाद - इन सब से मेरे कल्पना समुद्र में अव्यक्त एवं विचित्र तरंगे उठी हैं ।
मरणोन्मुख सामन्तशाही तथा पाखण्डी पुरोहतों के अत्याचार के कारण ही गांव का जीवन विकृत हो रहा है, यह बात वचपन के उन दिनों मे मैं नही समझता था । तो भी सामन्ती पाखण्डियों तथा उन के नियमों के प्रति मेरे हृदय में लेशमात्र आदर नही था । मेरे हृदय मे जब मेरा व्यक्तित्व अंकुरित हुआ तब उस को वायु तथा प्रकाश का आहार मिला मेरे गांव के वातावरण से । इसलिए मेरी कीवता भी उस ग्राम हृदय का एक अंग है । उस के बाद जब अध्यापक का काम करने लगा तब एक और गाँव का प्रभाव मेरे हृदय पर पड़ा । ’तिरुवुल्वामला’ का विशाल हृदय की तरह फैला हुआ स्वप्न-सान्द्र मैदान, टीलों-वनों में आँखमिचौनी खेलती हुई संकेत स्थान पर आ मिलनेवाली नदियां, हाथों मे जलकुम्भ लिये खड़े रहनेवाले मेघ, तराई के मार्ग पर मन्दगति से जानेवाली बैलगाड़ियाँ - ये सब दृश्य हैं जिनके कारण एकान्त में भी मैं एकाकी नहीं था । वे दृश्य मेरे व्यक्तित्व के विकास मे सहायक रहे । ’एकादशी’ के पर्व के अवसर पर दयालुओ की उदारता की आशा मे मार्ग पर मिट्टी की थाली रख कर दूर जा खड़े होनेवाले नायाड़ियों को देख कर मुझे दारिद्र्य, तथा छूत छात की क्रूरता के साथसाथ किसी समय स्थापित हुए आर्यो के उपनिवेश का स्मरण हो आता तो भी मनुष्य को प्रकृति चित्र के कतिपय बिन्दुओं की तरह ही मैं देख सका था । सम्भव है उस समय प्रकृति-चित्र को संवेदनाओं के उत्ताप से सजीव बनाने के लिये ही मेरा मन मनुष्य को ढूँढ़ता था ।किन्तु आज मैं प्रकृति-चित्र से भिन्न मनुष्य के आदर्शमय अस्तित्व का वास्तविक चित्र देखता हूं।