भूमिका / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
आज फूल-पत्ते लेकर आया हँ। मैं नहीं कह सकता, ये पसन्द आवेंगे या नहीं। न आवें, मुझको इसकी परवा नहीं। अपनी अपनी रुचि ही तो है, किसे अपनी रुचि प्यारी नहीं। जब पेड़ों पर बैठ कर चिड़िया गीत गाने लगती है, मीठी मीठी तानें छेड़ती है, तब क्या वह यह सोचती है कि मेरे गीत को सुन कर कोई रीझेगा या नहीं, कोई वाह वाह कहेगा या नहीं? कोई भले ही न रीझे, कोई भले ही न वाह वाह करे पर वह गाती है, मस्त हो हो कर गाती है। क्या यह मस्ती ही उसके लिए सब कुछ नहीं?अपने आपको रिझाने में क्या कोई मजश नहीं, क्या कोई आनन्द नहीं। है, बड़ा मजश है, बड़ा आनन्द है। यह अपनी रीझ ही तो औरों के जी में जगह करती है, आप रीझ कर औरों को रिझाती है। दिल से दिल को राह है। फूल पहले आप खिलते हैं,पीछे औरों के दिल को खिलाते हैं। कोयल कैसी काली कलूटी है, न रूप न रंग, न अच्छा ढंग, चालाक भी वह परले सिरे की है,कौओं की आँखों में उँगली वही करती है, पर कूककर किसको नहीं मोह लेती। उसके कंठ में जादू है, तानों में दर्द। जब बोलती है, मनों को मोह लेती है। गुण का कहाँ आदर नहीं। जहाँ गुण है, वहाँ मान है। गुण चाहिए पूछ क्यों न होगी।
फूल-पत्ते क्या प्यार की चीज नहीं? क्या वे अच्छी आँख से नहीं देखे जाते? क्या उनमें लुभावनापन नहीं, रंग नहीं, महक नहीं, क्या वे सुन्दर नहीं? फूल कितने अनूठे होते हैं, क्या यह भी बतलाना होगा? राजाओं के मुकुट पर जिनको जगह मिलती है, क्या वे ऊँचे से ऊँचे नहीं? देवताओं के सिर पर चढ़नेवाले, सुन्दरियों को भी सुन्दर बनाने वाले कौन हैं? फूल ही तो हैं। जिनकी ऑंखों के फिरने से दुनिया कंगाल होती है, कुबेर कौड़ी के तीन बन जाते हैं, बड़े बड़े राजाओं के मुँह पर हवाइयाँ उड़ने लगती हैं, वे कहाँ रहती हैं? फूल में। कुल दुनिया के बनानेवाले बाबाओं के बाबा पहले पहल कहाँ दिखलाई पड़े? फूल पर। जिनके हाथों से सब जहान पलता है, जो चार बाँह वाले हैं, उनके सब से ऊँचे हाथ को कौन सजाता है? फूल। हमारे औढरदानी भोलाबाबा गहरी छानने के बाद किस पर आँख गड़ाये रहते हैं? धतूरे के फूल पर। किसलिए? इसलिए कि उसमें एक अजीब मस्तानापन होता है। काम का बान, वह बान जिससे कौन कलेजा नहीं बंधा क्या है? फूल है। फूलों से जंगल के मुँह की लाली रहती है, बागों में बहार रहती है, और रहती है घरों में छटा निराली। डाली उनको पाकर खिलती है? और हरियाली उन्हें गोद में लेकर फूली नहीं समाती। बेलियाँ उनसे अलबेलापन पाती हैं और लतरें मनमानी लुनाई। मन्दिर उनसे सजते हैं, जलसे जलवा पाते हैं, और खेल खिलते दिखलाई पड़ते हैं। वे किस सिर के सेहरा नहीं, किस गले के हार नहीं, किन आँखों के चोर नहीं और किस गोदी के लाल नहीं। कोई कितनी ही सुन्दरी क्यों न हो, कोई सुन्दर से सुन्दर हो, पर उनके अंगों का पटतर फूलों से दिया जाता है। कोमल कहना हुआ कि फूल मुँह पर आये। रंग का ध्यान हुआ कि फूल आँखों पर नाचने लगे। हँसने में फूल मुँह से झड़ते हैं। आँसू की बूँदों के टपकने में कमल से ओस की बूँदें गिरती हैं, तो उँगलियाँ चम्पे की कलियाँ हैं। कहाँ तक कहें, फूल की बातें कहते-कहते भूलभुलैयाँ में पड़ गया।
रहे पत्ते... उनके बारे में भी पते की बातें सुनिए। जब कहीं कुछ न था, सब ओर पानी ही पानी था, सारी दुनिया डूब चुकी थी, तब सब से बड़ा खिलाड़ी एक बड़ के पत्ते ही पर सो रहा था, और अपने पाँव के अंगूठे का मजश मजे से ले रहा था। हरियाली की जान पत्ते हैं। जो पत्ते न हों, पेड़ ठूँठ जान पड़ेंगे और पौधे रंग ही न लायेंगे। धरती उजाड़ सी जान पड़ेगी और मैदानों में रेगिस्तान का समा दिखलाई देगा। पान कूँचने वालों से पूछिए, जो पत्ते न होते, तो उनके मुँह की लाली कैसे रहती। जब वसंत आता है, कोंपलें रंग लाती हैं, नये नये पत्तों से पेड़ सज जाते हैं। उन दिनों कोयल का ही गला नहीं खुल जाता, भौंरे ही मतवाले नहीं बनते, सारी देखनेवाली आँखों के सामने वह समा आ जाता है, जैसा साल भर फिर दिखलाई नहीं देता। पेड़ जिस हवा को पीते और जिन सूरज की किरणों के सहारे जीते हैं, उनको उन तक पहुँचाने वाले पत्ते ही हैं। जहाँ बरतनों की कमी से पूरी नहीं पड़ती, वहाँ पत्तल रखते हैं। जहाँ पानी के कटोरे हाथ नहीं आते, वहाँ प्यास वालों की प्यास दोने बुझाते हैं, जो पत्तों से ही बनते हैं। पत्तों से सिर को छाया मिलती है, पेट पलते हैं, खेत खाद पाते हैं और अन्न के पौधे पनपते हैं। एक बार देवतों के राजा विपत्ति में फँसे, लोगों को मुँह दिखाते न बनता, छिपने की नौबत आई, उन दिनों पत्ते ही आड़े आये, उन्हीं में वे बहुत दिनों तक मुँह छिपाये पड़े रहे, जब उनके विपत्ति के दिन बीते, तो उन्होंने उनको हजार आँख वाला बनाकर ही छोड़ा। एक दिन जब तलवार चमकाते हुए लंका का राजा अशोकवाटिका में आया, और जानकीदेवी को जान के लाले पड़े, उस घड़ी बाँके वीर हनुमान की भी अक्की बक्की बन्द हो गयी, वे भी पत्तों की आड़ में बैठकर ही आई मुसीबत को टाल सके। फिर कैसे कहें पत्तों की कोई बिसात नहीं और उनकी कोई गिनती नहीं।
कहा जा सकता है, इन फूल-पत्तों और तुम्हारे 'फूल-पत्तों' से क्या निस्बत? मैं अपने मुँह मियाँमिट्ठू नहीं बनना चाहता, इसलिए इस बारे में और कुछ न कहकर इतना ही कहूँगा, कि 'फूल-पत्तों' नाम सुनकर ही नाक-भौं न सिकोड़नी चाहिए। उनमें भी कोई बात हो सकती है। फूल-पत्तों की बड़ाई करके मैंने यही बतलाया है। जिनके पास देखनेवाली आँखें हैं, जो दिल रखते हैं, जिनमें सूझ और समझ है, वे मिट्टी को भी मिट्टी नहीं समझते, उसमें भी उनको कुछ मिलता है, न्यारिया राख में से भी सोना निकलता है। भरोसा है कि ऐसे लोग फूल पत्तों को भी अच्छी आँख से देखेंगे, जो ऐसे नहीं हैं, वे मनमानी कर सकते हैं, इस में चारा क्या। साँप जहर उगलेगा, बिच्छू डंक मारेगा, उल्लू अँधेरे में देखेगा, यह उनकी आदतें हैं, इसके लिए कोई क्या करे। पर सब जगह जहर काम नहीं करता, कहीं वह बेअसर भी हो जाता है। डंक तंग करता है, पर कहीं वह आप ही टूट जाता है। उल्लू अँधेरे में देखता है, तो देखा करे, इससे सूरज का क्या बिगड़ता है, उसकी आँख में ही कसर दिखलाई पड़ती है। इसलिए इसकी परवाह क्या? हाथी चला जाता है, कुत्ते भौंका ही करते हैं।
दुनिया दुरंगी है या एकरंगी, या बहुरंगी, क्या कहूँ, कुछ समझ में नहीं आता। कोई उसे बुरी बतलाता है, कोई अच्छी। कहीं उजियाला है, कहीं अंधियारा। कहीं फूल हैं, कहीं काँटे। कहीं हरा भरा मैदान है, कहीं बालुओं से भरा रेगिस्तान। कहीं सुख है, कहीं दु:ख। कहीं दिन है, कहीं रात। कहीं बगुले हैं, कहीं हंस। कहीं कोयल है, कहीं कौवे। कहीं बधावे बजते हैं, कहीं रोना-पीटना पड़ा रहता है। कहीं घर उजड़ता है, कहीं महल खड़े होते हैं। कहीं सोहर उठता है, कहीं सिर धुने जाते हैं। किसी के मुँह से फूल झड़ता है, कोई आग उगलता है। कुछ लोग ऐसे हैं, जो दूसरों की भलाइयाँ देखकर फूले नहीं समाते। कुछ ऐसे हैं जो औरों की बुराइयाँ करके ही आसमान के तारे तोड़ते हैं। किसी का दिल ऐसा बना है, जो दूसरों के दुखों की आँच से मोम सा पिघलता है, किसी का कलेजा पत्थर को भी मात करता है। किसी के जी में मिठास मिलती है, किसी के जी में कड़वापन। कुछ लोग ऐसे हैं जो दूसरों को फला फूला देखकर खिलते हैं, रोते को हँसाते हैं, उलझनों को सुलझाते हैं, बिगड़ी बनाते हैं और पराये हित के लिए जान हथेली पर लिये फिरते हैं। कोई ऐसा है, जो औरों का लहू चूस कर अपनी प्यास बुझाता है, दूसरों का गला घोंटता है, और किसी का घर उजड़ता देख अपने घर में घी के चिरागश् बालता है। कीने वाले दिलों की बात ही निराली है, वे साँप की तरह डँसते हैं और अवसर मिले औरों का कचूमर निकाल देते हैं। पाजियों की बात मत पूछिए, वे थोड़ी बातों में ही जामे के बाहर हो जाते हैं। जब किसी पर बिगड़ते हैं, पेट की सारी गंदगी निकाल कर सामने रख देते हैं। किसी पर कलम उठ गया तो आफत आ गयी, बेचारे की गत बना दी जाती है। बुरी बुरी गालियाँ दी जाती हैं, फूहड़ बातें कही जाती हैं, दिल का कालापन कागज पर फैला दिया जाता है, चाहे मोती पिरोनेवाली लेखनी के मुँह में सियाही भले ही लग जाय। ये बातें सच हैं। पर बुरों से भी भला, और भलों से भी बुरा होता है। जो किसी काम के नहीं होते, उनका काम भी कितनों की आँखें खोलता है, और जो बड़े काम के होते हैं, उनका काम भी कभी किसी काम का नहीं होता। कौवे किसी काम के न हों, पर कोयल के बच्चे उसी की गोद में पलते हैं। साँप कितना ही डरावना क्यों न हो, पर मणि उसके ही सिर में मिलती है। एक गाली बकने वाला अपना मुँह बिगाड़ता है, पर कितनों के कान खड़े करता है। एक के सिर पर चढ़ा भूत दूसरे के सिर का भूत उतारता है। एक नंगा कितनी की आबरू बचाता है। डूबकर पानी पीने वालों के गले में अटकी मछली कितनों का कान मलती है और बहुतों का पानी रखती है। मिट्टी में हीरे मिलते हैं, बालू में सोना। कीचड़ में कमल, और काँटों में फूल। अंधियारे से उजाले की परख होती है और कड़वी नीम मिठाई का मोल बतलाती है। मतलब यह है कि 'फूल-पत्तो' को इन झगड़ों से छुटकारा नहीं। जहाँ उसे भली ऑंख से देखने वाले होंगे, वहीं उसे टेढ़ी ऑंख से ताकने वाले भी मिलेंगे। वे किसी जी में अगर गड़ेंगे तो किसी आँख में खटकेंगे भी। कोई उन्हें चाहेगा, तो कोई बुरा कहेगा। दुनिया के ये पचड़े हैं, इनसे कौन बचा। इसीलिए मैं इन बातों के फेर में नहीं पड़ता। यों तो बतला ही चुका हूँ कि 'फूल-पत्ते' क्या हैं। पर थूकने वाले सूरज पर भी थूकते हैं, चाहे उनका थूक उनके मुँह पर ही क्यों न गिरे।
कहा जा सकता है, यह ठीक है। पर समय को देखना चाहिए, लोगों के तेवर पहचानने चाहिए। सोचना चाहिए कि हवा कैसी चल रही है, किधर जा रही है। दुनिया का रंग क्या है, देश वाले क्या चाहते हैं। लोगों की तबीअत कैसी हो गयी है, नई उमंग वालों को क्या पसन्द है, उनका झुकाव किस ओर है। जो हवा का रंग देखकर पाल नहीं तानता, उसका बेड़ा पार नहीं होता। आज दिन बोलचाल का बोलबाला नहीं, उसकी धूम नहीं, जैसी चाहिए वैसी पूछ नहीं। ऐसी हालत में उसी पर मरना,उसी का दम भरना, उसका रंग जमाने के लिए हाथ-पाँव मारना क्या ठीक है। जब लोग कहते हैं, हिन्दी में बिना संस्कृत शब्दों का पुट दिये, उर्दू में बिना फारसी और अरबी के लफ्जों
से काम लिये, भाषा में चुस्ती नहीं आती, और न जैसे चाहिए वैसी वह चटपटी बनती है। इतना ही नहीं वह एक तंग घेरे में घूमती रहती है, न हाथ-पाँव निकाल पाती है, और न आगे ही बढ़ सकती है। तब क्या इधार धयान न देना, और अपनी ही धाुन में मस्त रहना चाहिए। मैं कहूँगा, मेरे इरादों के समझने में धाोखा हुआ है, और कुछ का कुछ समझा गया है। मैंने कब संस्कृत अथवा फषरसी-अरबी के शब्दों का बायकाट करने की सलाह दी? मैं तो ऐसा नहीं चाहता। जो काम मैं अपने आप करता हूँ, उसके न करने की राय दूसरों को क्यों दूँगा। बोलचाल की मेरी जितनी कविताएँ हैं, उनसे चौगुनी रचनाएँ दूसरी तरह की हैं। मैं यह भी नहीं कहता कि समय का रंग न देखा जावे,और न हवा का रुख पहचाना जावे। मेरा यह विचार भी नहीं है कि बिना दुनिया का रंग देखे, बिना देश वालों का ढंग पहचाने,बिना नौजवानों की नाड़ी टटोले, बिना लोगों के तेवर की जाँच-पड़ताल किये, बिना माँग, बिना जरूरत टाँग अड़ाई जावे, और कुछ का कुछ किया जावे। क्या ऐसा करना समझदारी होगी? समय बदलता रहता है, उसके साथ बातें भी बदलती रहती हैं। चालढाल, रंगढंग, रीति रिवाज का भी कायापलट होता है। जो इसको नहीं समझता मुँह की खाता है, दुनिया में पनप नहीं सकता। इसलिए मैं वह रास्ता नहीं पकड़ सकता, जो उलटा हो, समय के साथ न चलता हो। बोलचाल का राग अलापना, समय के साथ ही सुर मिलाना है, बेसुरी तानें नहीं छेड़ना है। मैं बतलाऊँगा कि कैसे।
वह भाषा जीती नहीं रहती, जो बोलचाल की नहीं होती। संस्कृत के बाद प्राकृत और प्राकृत के बाद हिन्दी क्यों सामने आई? इसलिए कि वे दोनों बोलचाल से दूर पड़ गईं। आज दिन जिस भाषा में हिन्दी या उर्दू लिखी जा रही है, वह कहाँ की भाषा है? किस जगह बोली जाती है? कहीं नहीं। अगर यही ढंग रहा तो हिन्दी या उर्दू कितने दिन जीती रहेगी? दोनों उस ओर जा रही हैं, जिधर उनके लिए ऐसे बड़े-बड़े गङ्ढे हैं, जिन में गिरकर वे चूर चूर हो जायँगी, उनका पता भी न लगेगा। क्या लोग यही चाहते हैं? मैं समझता हूँ ऐसा कोई नहीं चाहता। दोनों ही अपनी-अपनी भाषा को जीती देखना चाहते हैं। दोनों ही चाहते हैं कि वह फूले फले। फिर अगर मैं ऐसी बात बतलाता हँ, जिससे माँगी मुराद मिले, आई बला कई की तरह फट जावे तो भलाई करता हूँ कि बुराई? उन भाषाओं को ठीक रास्ते पर ले चलता हूँ, या उन्हें अन्धो कुएँ में गिराता हूँ? मैं यह जानता हूँ कि जब ऐसी किताबें लिखी जाती हैं, जिनमें पेचीदगी होती है, बड़े-बड़े मसले हल करने होते हैं, जिनमें बारीकियाँ होती हैं, उलझनों का सामना करना पड़ता है, बाल की खाल निकालनी पड़ती है, एड़ी चोटी का पसीना एक करना पड़ता है, जो दर्शन या विज्ञान की होती हैं, या इसी तरह के पचड़ों से भरी रहती हैं, बोलचाल की भाषा में उनका लिखना आसान नहीं। उनमें संस्कृत के शब्द या अरबी फारसी के लफ्ज़ लेने ही पड़ेंगे, उनसे छुटकारा नहीं और न मैं इस बारे में उँगली उठाता हूँ। ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि पहाड़ों में पत्थर और लोहे की खानों में लोहे रहेंगे ही पर जो किताबें पब्लिक के लिए लिखी जाती हैं,जिनमें इस तरह के बखेड़े नहीं होते, उनका बोलचाल में लिखा जाना ही ठीक है। क्योंकि सीधी सादी बातों को सीधी सादी होनी चाहिए। घरेलू बातों में घर की बोलचाल का ही रंग रहना चाहिए। उठते बैठते, चलते फिरते, एक दूसरे के साथ बोलते हुए, कामकाज में, जो शब्द मुँह पर आते रहते हैं, उनकी जगह ऐसे शब्दों को लिखना, जिनसे जान पहचान नहीं, भाषा को बनावटी बनाना और उस सुभीते से हाथ धोना है, जो हमारे बड़े काम का है। कहा गया है संस्कृत, फारसी और अरबी शब्दों के आये बिना बोलचाल की भाषा चुस्त नहीं होती। यह अपने अपने पसन्द की बात है। पर असलीयत असलीयत है, और बनावट बनावट। फूल की असली रंगत पर रंग चढ़ाकर उसे हम सुन्दर नहीं बना सकते और न उसमें अनूठापन ला सकते। पेड़ों के हरे पत्तों की हरियाली को हरे रंग से रँग कर अगर हम उस के रंग को चटक बनाना चाहेंगे, तो धोखा खाएँगे, मन की न कर पाएँगे। उन्हें बिगाड़ेंगे, सँवारेंगे नहीं।
दूसरी बात यह कि बोलचाल की भाषा का मतलब ठेठ हिन्दी नहीं है। ठेठ हिन्दी बोलचाल की भाषा नहीं हो सकती। बोलचाल की भाषा वह है, जिसे सब लोग बोलते हैं। बोलचाल में अगर संस्कृत, अरबी क्या, अंग्रेजी, लैटिन, ग्रीक के भी शब्द आ गये हैं तो उनका बायकाट नहीं किया जा सकता। आजकल बोलचाल में कचहरी, रेल, तार, डाक आदि ऐसे शब्द मिल गये हैं, जो अंग्रेजी या यूरोप की दूसरी भाषाओं के हैं, क्या इन्हें अब निकाल बाहर किया जा सकता है। यदि इनको निकाल बाहर करेंगे और इनकी जगह पर गढ़कर नये शब्द रखेंगे तो, वह बोलचाल की भाषा न रह जायगी, एक बनावटी भाषा बन जायगी। बोलचाल की हिन्दी में बहुत से असली संस्कृत, फारसी, अरबी के शब्द मिले हुए हैं। 'सुख', 'रोग', 'मन', 'धन' आदि संस्कृत के, और 'ख़बर', 'लात', 'नेकी', 'बदी', 'मामला' आदि फारसी अरबी के शब्द हैं। यूरोप की भाषा के कुछ शब्द मैं ऊपर लिख आया हूँ। बोलचाल की भाषा लिखने में अगर इन शब्दों या ऐसे ही दूसरे शब्दों को हम अलग रखना चाहेंगे तो जो भाषा हम लिखेंगे, वह बोलचाल की भाषा रहेगी ही नहीं। वह तो एक ऐसी भाषा होगी जिसे हम ठेठ हिन्दी भले ही कह लें। हिन्दी भाषा ऐसे शब्दों से बनी है, जिन्हें हम संस्कृत के तद्भव शब्द कहते हैं। ये तद्भव शब्द हजारों बरसों का चक्कर काटने के बाद इस रंग में ढले हैं। 'हस्त' से 'हत्थ' और हत्थ' से 'हाथ' बना है, इसी तरह 'कर्म' से 'कम्म' तब 'काम'। संस्कृत के ऐसे ही शब्द हिन्दी को जन्म देने वाले हैं। उसमें कुछ देशज शब्द 'गोड़', 'टाँग' आदि भी मिलते हैं। जब काम पड़ने पर अरबी, फारसी आदि के भी बहुत से शब्द हिन्दी में मिल गये तब कुछ लोग उसे उर्दू कहने लगे, पर है वह हिन्दी ही। अब इसमें बहुत से अंग्रेजी और यूरोप की दूसरी भाषाओं के शब्द भी मिल गये हैं। उर्दू हिन्दी का झगड़ा मिटाने के लिए, कुछ लोग अब इसे हिन्दुस्तानी कहते हैं। इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। हिन्दी कहें चाहे हिन्दुस्तानी, दोनों का मतलब एक ही है। यही हिन्दी अब खड़ीबोली का लिबास पहनकर बहुत दूर तक फैल गयी है। लगभग हिन्दोस्तान भर में समझी जाने लगी है। इसका फेरा इन दिनों इस देश के उन कोनों में भी उड़ने लगा है, जहाँ अब तक उसकी पहुँच नहीं थी। फिर अगर मैं बोलचाल की तरफ लोगों को ले जाता हूँ, तो क्या बुरा करता हूँ। जिस नीति से हिन्दी दिन ब दिन फूले फलेगी, बहुत से लोगों के दिल में घर करेगी और वह गहरी खाई पट जावेगी जो उसकी और उर्दू की राह में और गहरी होती जा रही है, क्या वह बुरी हो सकती है?क्या बोलचाल की यह भाषा ऐसी है कि उसे कड़ी आँख से देखा जावे और उसे मटियामेट कर के ही दम लिया जावे? नहीं, नहीं वह ऐसी नहीं है। यह समय बतला रहा है। वह आदर पाएगी और रंग लाएगी। वह आँखों में ही नहीं, दिलों में भी समाएगी, और जादू कर दिखलाएगी।
कुछ लोग यह कह सकते हैं कि 'ठेठ हिन्दी का ठाट' और 'अधखिला फूल' बनाने वाले के मुँह से ये बातें अच्छी नहीं लगतीं। किसी किसी ने तो यह भी लिख मारा है कि मैं उनको लिखकर वैसी ही भाषा का प्रचार हिन्दी में करना चाहता था, पर अपना सा मुँह लेकर रह गया। मैं ऐसे लोगों से यह कहूँगा कि आप लोगों ने मेरे विचार को ठीक ठीक नहीं समझा। लिखने का मतलब यह था कि मैं यह दिखला सकूँ कि हिन्दी अपने पाँवों पर खड़ी हो सकती है या नहीं। बिना दूसरों का मुँह ताके, बिना दूसरों का सहारा लिये, बिना औरों के सामने हाथ फैलाये, बिना किसी की कनौड़ी बने, वह कुछ भावों को प्रकट कर सकती या लिख सकती है या नहीं। मेरा विचार है, लिख सकती है, इसीलिए 'ठेठ हिन्दी का ठाट' सामने आया और 'अधखिला फूल' लिखा गया। कुछ लोगों ने मेरे इस विचार को माना है, उनकी राय आगे लिखी जाती हैं-
श्रीयुत बाबू काशीप्रसाद जायसवाल, एम.ए., अपने 25 मार्च, 'सन् 1905, के पत्र में यह लिखते हैं-
अधखिला फूल' को, जिसे कृपापूर्वक आपने हमारे पढ़ने के लिए भेजा, हमने कल रात को पढ़ा। बहुत दिनों से उपन्यासों का पढ़ना छोड़ दिया था पर इसलिए कि आपने इसे हमारे पढ़ने को भेजा था, हमने पहले बेगार सा शुरू किया। समझा था कि भूमिका भर पढ़ कर रख देंगे। पर पहली पंखुड़ी के प्रथम पृष्ठ की भाषा ने हमको मोह लिया और किताब न छोड़ी गयी। ज्यों ज्यों पढ़ते गये प्लाट की उलझन में पड़कर आगे ही बढ़ते गये। रात को देर तक पढ़ते रहे, समाप्त हो जाने पर पुस्तक हाथ से छूटी और मन में यही चाह बनी रही कि देवहूती और देवसरूप का और हाल पढ़ते।
पुस्तक आख़िर तक एक रस स्टाइल में लिखी गयी है और स्त्रियों के बड़े काम की है। हम कह सकते हैं कि ऐसा उत्तम उपन्यास हिन्दी में दूसरा नहीं है।
कहीं कहीं वर्णन बहुत रसीला है। कामिनीमोहन की हालत पर खेद होता है और आपका अभिप्राय भी यही है। उसके मन्दिरों पर के शिलालेख दिल में चुभ जाते हैं। देवसरूप के मिलने पर अर्थात् उसके उद्धाटन पर और हरमोहन पाँड़े के घर लौटने पर तथा ऐसे दूसरे स्थानों पर हमारे आँसू जारी थे। भाई इस किताब पर हम लट्टू हैं।
एक दूसरे स्थान पर वे यह लिखते हैं-
उपाध्याय जी ने कुछ वर्ष हुए एक नई शैली की हिन्दी अपने दिल में पैदा की। 'ठेठ हिन्दी का ठाट' और 'अधखिला फूल' उसके उदाहरण हैं। उपाध्याय जी की ठेठ भाषा देखने में इतनी सरल कि उससे और सरल लिखना असम्भव है, लिखने में इतनी कठिन कि दूसरे किसी ने अनुकरण करने की हिम्मत ही नहीं की।
अनेक शास्त्रों के पण्डित परम विद्वान पं. सकलनारायण पाण्डेय क्या कहते हैं, उसे भी सुनिए-
मैं अधखिला फूल आद्यन्त पढ़ गया, यह उपन्यास रोचक और उत्तम है, इसकी कहानी शिक्षाप्रद है। श्रीमान् ने हिन्दी भाषा के भण्डार को एक प्रशंसनीय पुस्तक से सुसज्जित किया है, अतएव हिन्दी रसिक आपके अनुगृहीत हैं।
इसकी भाषा लड़के और स्त्रियों के समझने योग्य है। ऐसी भाषा लिखना टेढ़ी खीर है, किन्तु श्रीमान् भलीभाँति सफलीभूत हुए हैं।
बंगाल के प्रसिध्द विद्वान् प्राकृत भाषा के सर्वश्रेष्ठ आचार्य श्रीयुत् विधुशेखर भट्टाचार्य यह लिखते हैं-
पण्डित अयोध्या सिंह उपाध्याय ने हिन्दी साहित्य के नाना अंगों की रचना एवं पुष्टि की है। मैं उन सभी रचनाओं से परिचित नहीं, पर उनकी एक पुस्तक 'ठेठ हिन्दी का ठाट' मैंने अच्छी तरह पढ़ी है। यह एक ही पुस्तक हिन्दी भाषा पर उनके अद्भुत अधिकार का ज्वलन्त प्रमाण है। इतनी सरलता के साथ इतने सुकुमार भावों का प्रकाशन मैंने अन्यत्र नहीं देखा। इस पुस्तक को पढ़कर मैंने बँगला में एक उसी प्रकार की पुस्तक लिखना चाहा था। वह विचार कार्य रूप में उपस्थित नहीं किया जा सका पर उक्त पुस्तक पढ़ने के बाद मेरा यह दृढ़ विश्वास हो गया कि हिन्दी भाषा बँगला की अपेक्षा भाव प्रकाश करने में कहीं अधिक समर्थ है। 'ठेठ हिन्दी का ठाट' हिन्दी भाषा की समृध्दि का प्रबल प्रमाण है।
'अनेक भारतीय भाषाओं के परम प्रसिध्द विद्वान् सर जार्ज ए. ग्रियर्सन साहब 'ठेठ हिन्दी का ठाट' के विषय में यह लिखते हैं-
'ठेठ हिन्दी का ठाट' के सफलता और उत्तमता से प्रकाशित होने के लिए मैं आपको बधाई देता हूँ, यह एक प्रशंसनीय पुस्तक है।
आप कृपा करके पण्डित अयोध्या सिंह से कहिए कि मुझे इस बात का बहुत हर्ष है कि उन्होंने सफलता के साथ यह सिध्द कर दिया है कि बिना अन्य भाषा के शब्दों का प्रयोग किये ललित और ओजस्विनी हिन्दी लिखना सुगम है।¹
इन रायों के पढ़ने के बाद यह बात समझ में आ जायगी कि हिन्दी में वह बल है कि बिना किसी दूसरी भाषा के सहारा लिये वह बहुत से घरेलू और सीधे सादे भावों को अपने साँचे में ढाल सके, और उसे ठीक ठीक समझा सके। इतनी बात लोगों के जी में बैठालने के लिए ही 'ठेठ हिन्दी का ठाट' और 'अधखिला फूल' का जन्म हुआ। मैं या कोई दूसरा समझदार यह कभी नहीं सोच सकता कि बोलचाल की भाषा उन शब्दों का बायकाट करके भी लिखी जा सकती है, जो उसमें दूसरी भाषाओं से मिल गये हैं। इधर हिन्दी भाषा के हिमायतियों का ध्यान खींचने के लिए ही मैंने बोलचाल की भाषा में कई किताबें लिखीं जो आप लोगों के सामने आ चुकी हैं। 'फूल-पत्ते’' भी इसी विचार से सामने रखे जा रहे हैं। मैं यह जानता हूँ कि आजकल बोलचाल की भाषा में कविता लिखने की ओर हिन्दी वालों का ध्यान नहीं है पर मेरा विचार है कि ऐसा होना चाहिए।
"I must congratulate you on the successful issued of 'Theth Hindi ka That' It is an admirable book.
Will you kindly tell Pandit Ajodhya Singh how glad I am that he has so successful proved that it is easy to write elegantly and at the same time strongly in Hindi without having to use foreign words.
आजकल सब लोगों तक अपने विचार पहुँचाने के लिए, और इसलिए भी कि किताबें बहुत बिकें, उपन्यासों की भाषा बोलचाल की हो रही है। कोर्स की किताबें भी इसी भाषा में लिखी जाने लगी हैं, बहुत से उपन्यास आजकल इस रंग में डूबे निकल रहे हैं। क्योंकि उनकी पूछ और माँग है। जो यह सच है, तो फिर कविता कब तक किनारा करती रहेगी, उसको भी अपना रंग बदलना ही पड़ेगा। इसी में सुभीता है, और इसी में भलाई। नहीं तो जैसा चाहिए वैसा उसका आदर न हो सकेगा और न वह जैसा चाहिए वैसा फूल-फल सकेगी। मैं यह नहीं चाहता, इसलिए अपनी बात कहता रहता हँ। सोचता हूँ, वह सुनी जायगी।
मैं देखता हूँ कि आजकल हिन्दी के सब तरह के पत्रों में उर्दू के शे'रों को जगह मिल रही है, वे चाह के साथ पढ़े जाते हैं, और वाहवाही भी ले रहे हैं। क्यों? सबब क्या? दूसरा कोई सबब नहीं, उनमें बोलचाल का रंग रहता है, मुहावरों की चाशनी होती है, वे चटपटे होते हैं, ठीक ठीक समझ में आ जाते हैं। पेचीदगी न तो उनको पहेली बनाती है, और न बेसिर-पैर की बातें उनमें उलझनें पैदा करती हैं। इसलिए उनकी चाह है, और लोग उनको अच्छी ऑंखों से देखते हैं। आजकल की हिन्दी कविता की चाल बिलकुल इससे उलटी है। पहले तो उसमें ऐसी बातें कहने का चाव देखा जाता है, जो उस पार की हों। जो कुछ हमारी आँखों के सामने होता रहता है, जो बातें हमारे व्यवहारों में आती रहती हैं, उनसे मुँह मोड़कर उसमें ऐसे राग अलापे जाते हैं, जिनमें आसमानी तानें रहती हैं। ऐसी आसमानी तानें, जिनको कानों ने न कभी सुना, न जी में जो जगह कर सकती हैं। समझा जाता है, जो बातें जितनी पेचीदा होंगी, उनके समझने के रास्ते में जितने रोड़े होंगे, जो पहेली के लिए भी पहेली होगी, वह उतनी ही ऊँचे दर्जे की समझी जावेगी और उसका लिखने वाला उतना ही बड़ा कवि माना जावेगा। पर यह नासमझी या भूल छोड़ और कुछ नहीं होती। लोगों के कान पहले दुनिया की बातें सुनना चाहते हैं, उन बातों को सुनना चाहते हैं जो जी में बैठें, जिनमें रस के सोते बहते हों और जो दिल में गुदगुदी पैदा कर सकें। जो कुछ देर के लिए उनको कुछ का कुछ कर दें, मजे से मजे लेने दें। न कि उनको चाबुक के जाल में फँसा दें, या उन्हें आसमान में चक्कर लगाने के लिए मजबूर करें।
दूसरी बात जो आजकल की हिन्दी कविता को लोहे का चना बना रही है, मनमानापन है। जो अधकचरे हैं या जिन्होने ने अभी कविता का ककहरा ही पढ़ा है, उनकी बात मैं नहीं कहता। हिन्दी जगत् में जिनकी धूम है, आज दिन जिनका बोलबाला है, मैं उनको भी मनमानी करते देखता हूँ। ऐसी मनमानी जिस पर उँगली उठाई जा सकती है। यों तो 'निरंकुशा: कवय:' कहा ही जाता है। कवि मनमानी करते ही रहते हैं। पर उसकी भी हद होनी चाहिए, अंधाधुंधा ठीक नहीं। खेत को हराभरा रखना है, उसके पौधों को फला फूला देखना है, तो बँधी मेंड़ को तोड़ना ठीक न होगा। आपके पास बैलून है; आप उस पर उड़िए, पर सड़कों को मत खोद डालिए, क्योंकि उनसे बहुतों को सुभीता है। हम किसी बात की पाबन्दी न करेंगे, किसी रूल को न मानेंगे, अपनी राह सब से अलग रखेंगे, ये बातें किसी एक के काम की हो सकती हैं, पर उससे बहुतों की राह में काँटे बिखर सकते हैं। इतना ही नहीं, कभी उस एक की भी गत बन जायेगी, वह भी बखेड़े में पड़ेगा, और कहीं कहीं उसे मुँह के बल गिरना होगा। आजकल, कुछ लोग अंग्रेजी मुहावरों के पीछे बेतरह पड़े हैं। ज्यों-का-त्यों अंग्रेजी मुहावरों के शब्दों का तर्जुमा करके रख दिया जाता है, और समझा जाता है कि वह मुहावरा हिन्दी में भी वैसा ही काम देगा, जैसा अंग्रेजी में देता है। पर यह उलटी बात है। मुहावरों का शाब्दिक तर्जुमा नहीं हो सकता। अगर कहा जाता है कि 'आँख में धूल क्यों झोंकी जाय', तो इसका यह अर्थ न होगा कि किसी की आँख में धूल क्यों डाली जाय, बल्कि इसका मतलब यह होगा कि किसी को धोखा क्यों दिया जाय। अगर इस मुहावरे का शाब्दिक तर्जुमा करके हम किसी दूसरी भाषा में रख देंगे, तो उसमें उसका अर्थ धोखा देना न समझा जावेगा, आँख में धूल डालना ही समझा जावेगा, जो ठीक अर्थ मुहावरे का न होगा। सच्ची बात यह है कि सब भाषाओं के मुहावरे शाब्दिक अर्थ से अलग अपना एक ख़ास अर्थ रखते हैं, इसलिए उनका शाब्दिक तर्जुमा नहीं हो सकता। ऐसी हालत में करना यह चाहिए कि यदि दूसरी भाषा के मुहावरे को हम अपनी भाषा में लाना चाहते हैं, तो पहले यह विचारें कि इसी भाव का कोई मुहावरा हमारी भाषा में है या नहीं। जो सोचने पर कोई वैसा मुहावरा मिल जावे तो उसी को उसकी जगह पर रखना चाहिए। जो न मिले, तो ठीक शब्दों के सहारे उसके भाव को खोल देना चाहिए। उसका शाब्दिक तर्जुमा कभी न रखना चाहिए। क्योंकि यह भूल भाषा को सुबोध नहीं रहने देती, और उसमें ऐसी गुत्थी डाल देती है, जिसका सुलझाना या खोलना आसान नहीं होता। आजकल अंग्रेजी के ढंग पर वाक्य भी गढे ज़ाने लगे हैं, उसके भाव और विचार भी उसी के रंग में ढालकर लिखे जाने लगे हैं। हिन्दी भाषा की कविता को ये बातें भी उलझनों में डाल रही हैं, और उसको ऐसा बना रही हैं, जिसको हम सरल या सुबोध नहीं कह सकते।
मुहावरे कविता में जान डाल देते हैं, बहुत बातों को थोड़े में कहते, और उसको चुस्त बनाते हैं। उर्दू वाले इन बातों को जानते हैं, इसलिए हिन्दी के मुहावरों से काम लेकर अपनी कविताओं को वे लोग सजाते रहते हैं। पर हिन्दी वाले अपनी भाषा के मुहावरों को फूटी आँख से भी नहीं देखना चाहते। वे अंग्रेजी भाषा के मुहावरों का शाब्दिक तर्जुमा करके अपनी रचनाओं में खपाएँगे, पर अपनी भाषा के मुहावरों की जगह पर संस्कृत के शब्दों की भरमार करेंगे, और उसे ऐसा बना देंगे, जिसे समझने में वे अपने आपको भी चक्कर में डाल देंगे। सभी ऐसा करते हैं, मैं यह बात नहीं कहता। पर आजकल कविता का झुकाव इसी ओर है, और वह इसी बहाव में बहकर नीचे ऊपर हो रही है। कवि-सम्मेलनों में देखा जाता है कि जब छायावाद का कवि अपनी कविता सुनाने के लिए उठता है तब वह सुकंठ होने पर ही अपना रंग जमा सकता है, उसकी गिटकिरी, उसकी तानें, उसके स्वर की मीठी लहरें ही लोगों को अपनी ओर खींचती हैं, उसकी कविता के भाव नहीं, क्योंकि वे सुबोध होते ही नहीं। अगर उसके पास कंठ नहीं, अगर वह अपनी कविता को गाकर नहीं सुना सकता, तो उसकी कविता कितनी सुन्दर क्यों न हो, आदर मान नहीं पाती और कवि को नीचा दिखा देती है। यही सबब है कि अब भी कवि-सम्मेलनों में ब्रजभाषा की तूती बोलती है और उसी का रंग चोखा और गहरा रहता है, क्योंकि उसमें लचक रहती है, वह सुबोध होती है और समझ में आ जाती है। ब्रजभाषा की कविता पढ़ने वाला कवि जो सुकंठ होता है, तो सोने में सुगंध मिल जाती है। जो सुकंठ नहीं है, तो भी उसकी कविता अपना रंग बंधा लेती है, क्योंकि उसके भावों में रंगीनी की कमी नहीं होती और वे ऐसे शब्दों में सामने आते हैं, जो कान के जाने पहचाने होते हैं, और जिनमें से अंगूर की तरह रस निचुड़ा पड़ता है।
कुछ लोग गाकर कविता पढ़ना ऐब समझते हैं। उनका कहना है कि गलाबाजी करके कविता का रंग जमाना कविता को नीचा दिखाना है। गले के दर्द से अगर कविता में जान पड़ी, तो कविता बेजान क्यों न मानी जायगी। स्वर भर भर कर, ताने ले लेकर अगर कविता लोगों को लुभा सकी तो इससे तो संगीत का बोलबाला हुआ, कला का क्या कमाल दिखलाया? कला को कला दिखानी चाहिए। कविता में जान होगी तो वह आप दिल पर असर करेगी, लोगों को तड़पा देगी, सिरों को हिला देगी, जादू सा करेगी, और कानों में रस घोले देगी। इसीलिए जो सुकवि या अच्छे शायर हैं, वे कविता को गाकर सुनाना अच्छा नहीं समझते। मुशायरों में उस्तादों को गाकर कविता सुनाते नहीं देखा जाता, क्योंकि उनका दावा होता है कि कविता की जान ही उसकी जान है। वह अपने पाँवों पर खड़ी होगी और अपना काम कर जायगी, वह दूसरों का मुँह क्यों ताके। यह बात सच है,पर इसके लिए जहाँ कविता में सुन्दर भाव होने चाहिए, वैसे ही उसकी भाषा को भी सीधी सादी, लचकदार और ऐसी होनी चाहिए जो सुनते ही जी में जगह कर ले, और एक-एक बात को लोगों के जी में ठीक-ठीक बैठाल दे। यह बात बोलचाल की भाषा में ही मिल सकती है, गढ़ी भाषा में नहीं।
मैंने गाकर कविता पढ़ने के बारे में जो कुछ कहा है, वह और का और समझा जा सकता है। इसलिए इस बारे में कुछ और कह देना चाहता हूँ। गाना कविता को चमका देता है, उसे कुछ का कुछ बना देता है, सच तो यह है कि गाना कविता ऍंगूठी का नगीना है, कवितासुन्दरी के गले का हार है और है कवितादेवी की दमक। कविता अगर चिड़िया है तो गाना चहकना है। जिसको मीठा कंठ मिला है, जिसके गले में लोच है, उसको कविता गाकर ही सुनाना चाहिए। ऐसा करके वह टोना करेगा। अगर उसकी कविता भी जानदार है, तो वह टोना क्या जादू करेगा। जहाँ मार्के होंगे, उसका सामना कोई न कर सकेगा। कोई हिन्दू सामगान के कमाल को नहीं भूल सकता।
झंकार से जैसे वीणा का बोलबाला होता है, उसी तरह गान से कविता का। लय और तानों से भरी कविता सुनकर मैं मोह जाता हूँ, अपने को भूल जाता हूँ। इसलिए मैं गाकर कविता पढ़ने को बुरा कैसे कह सकता हूँ। मैंने तो जो कुछ अभी कहा है,उसका मतलब इतना ही है, कि अगर कविता में जान हो, और वह ऐसी भाषा में लिखी गयी हो, जिसको सब लोग समझ सकें तो वह इसकी मुहताज नहीं कि गाई जाकर ही दिलों में घर कर सके। उसकी जानदारी और बोलचाल की सादगी ही उसको वाहवाह दिलाती है। और उसे मान का पान दिलाने में भी कसर नहीं करती। उसके सुनते ही कानों में अमृत की बूँद टपक पड़ती है, और दिलों पर जादू हो जाता है। पर अगर कविता जानदार हो, और बोलचाल में न लिखी गयी हो, उसमें ऐसे शब्द भरे हों, जिनको हम समझ नहीं सकते, तो उसकी जानदारी उसी तरह लोगों के दिल को लुभाने में बेबस होगी, जिस तरह काले बादलों के परदे में छिपी पूनों की चाँदनी। मैं समझता हूँ कि अब यह बात समझ में आ गयी होगी कि बोलचाल की भाषा का मरतबा क्या है, और मैं क्यों उसकी बातें हिन्दी-जगत् को सुनाता रहता हूँ। अगर बोलचाल में लिखी जाने से ही उर्दू कविता का मान आज दिन हिन्दी-प्रेमियों में हो रहा है, वह हाथोंहाथ ली जा रही है, आदर-मान पा रही है, लोगों को अपना रही है, तो उसी बोलचाल की भाषा में लिखी गयी हिन्दी भाषा की कविता ठुकराई जायगी, यह बात कैसे मानी जा सकती है। मेरा तो जी कहता है और मैं यह दिल खोलकर कहता हूँ, कि अगर बोलचाल की भाषा का ठीक ठीक आदर हिन्दी-जगत् में हुआ, और उसकी ओर हमारे नौनिहालों का ध्यान खिंचा, तो हिन्दी भाषा निहाल हो जायगी, और उसे चार चाँद लग जाएँगे।
जब हम लोग हाथ में कलम लेकर किसी की भद्द उड़ाते हैं, किसी को बनाते हैं, किसी का मुँह चिढ़ाते हैं, किसी पर आवाजें कसते हैं, किसी की खिल्ली उड़ाते हैं, किसी से दिल्लगी करते हैं, किसी की चुटकियाँ लेते हैं, किसी को ताना मारते हैं, किसी की मिट्टी पलीत करते हैं, किसी को उल्लू बनाते हैं, लगती बातें लिखकर किसी को राह पर लगाना चाहते हैं, किसी की हँसी उड़ाकर उसको लजवाते हैं, जब हम चुभती बातों से किसी दिल में सुई चुभाते हैं, किसी की मक्कारी का परदा उठाते हैं, किसी की बदनामी का ढोल पीटते हैं, किसी को दिल हिला देने वाली लनतरानियाँ सुनाते हैं, उस समय बोलचाल की भाषा ही हमारा साथ देती है। हमारे कलम से ऐसे ही शब्द निकलते हैं, जो उसकी नोक की तरह चुभने वाले होते हैं। क्यों? सबब क्या? कोई दूसरा सबब नहीं सिवा इसके कि वे जल्द समझ में आते हैं और अपना असर रखते हैं। सदा हम जिस भाषा को बोलते हैं, जिस भाषा में बातचीत करते हैं, हँसी में, दिल्लगी में, मखौल उड़ाने में, जिन शब्दों से काम लेते हैं, अगर लिखने के समय उनको काम में न लाएँ तो हमारी फबतियों का मजश ही किरकिरा हो जाता है, और हमारा कलम वह असर नहीं पैदा कर सकता, जिसके लिए वह उठाया गया था। जब लोग किसी से बिगड़ते हैं, किसी से झगड़ते हैं, किसी से तहत्तुक करते हैं, किसी को जली-कटी सुनाते हैं, गालियाँ देते हैं, बकते झकते हैं, उस घड़ी शब्द चुनने नहीं बैठते जो शब्द मुँह में आया कह डालते हैं। इसलिए ऐसी बातों के लिखने के समय भी हमको उन्हीं शब्दों को काम में लाना पड़ता है, जो ऐसे अवसरों पर काम में लाये जाते हैं। अगर ऐसा न किया जाय तो लेख में बनावट आ जायगी, जिससे वह जैसा चाहिए न तो दिल में चुभेगा और न वैसा उसका असर होगा। उसका रंग ही बिगड़ जाएगा। इसलिए ऐसे लेखों में आप बोलचाल का बोलबाला ही पावेंगे। उससे किनारा करके कोई लेखक न तो चटपटे लेख लिख सकेगा, और न दूसरों के दिल को जैसा चाहिए वैसा दहला सकेगा, और न किसी को अपनी बातों की लपेट में ला सकेगा। अगर यह सच है तो बोलचाल ऐसी चीज नहीं, कि उससे हम नाक भौं सिकोडें और उसके लिए लापरवाही करें। यही बात मुहावरे के लिए भी कही जा सकती है।
आजकल जिस भाषा में खड़ीबोली की कविता लिखी जाती है, वह बनावटी है, गढ़ी हुई है, असली बोलचाल की भाषा नहीं है। इन दिनों गद्य की भाषा भी यही है। यह भाषा अब पढ़े-लिखों में समझ ली जाती है और दूर तक फैल भी गयी है। इसमें संस्कृत शब्दों की भरमार है। इन दिनों इसका लिखना आसान है, इसका अभ्यास हो गया है, यह साहित्यिक भाषा बन गयी है। संस्कृत भाषा में, उसके शब्दों में, उसके समासों में कैसा बल है, वह कितनी मीठी है, उसमें कितना लोच है, कितना रस है,कितनी लचक है, कितनी गुंजाइश है, कितना लुभावनापन है, उसमें कितना भाव है, कितना आनन्द है, कितना रंग रहस्य है,मैं उसे कैसे बतलाऊँ। उसमें क्या नहीं, सब कुछ है। उसमें ऐसे-ऐसे सामान हैं, ऐसे-ऐसे विचार हैं, ऐसे-ऐसे साधन हैं, ऐसे-ऐसे रत्न हैं, ऐसे-ऐसे पदार्थ हैं, कि उनके बिना हम जी नहीं सकते, पनप नहीं सकते, न फूल फल सकते हैं। उससे मुँह मोड़ कर हिन्दी भाषा के पास क्या रह जायेगा? वह कंगाल बन जायेगी। तमिल, तैलगू, मलयालम आदि ऐसी भाषाएँ हैं, जो पराई मानी जाती हैं। पर आज दिन वे भी संस्कृत शब्दों से भरी हैं, संस्कृत की बदौलत ही मालामाल हैं। फिर बिचारी हिन्दी की क्या बिसात जो उससे नाता तोड़ सके। संस्कृत के सामने हम सिर झुकाते हैं, हम सदा सेवक की तरह हाथ बाँधा कर उसकी सेवा में खड़े रहना चाहते हैं। हम उसको धता क्या बताएँगे, ऐसा सोचना भी पाप समझते हैं। हिन्दी भाषा की चोटी उसी के हाथों में हैं। ऊँचे-ऊँचे विषय उसी की गोद में पलेंगे, उसी के सहारे हिन्दी भरी पूरी होगी। मैंने जो बोलचाल की ओर ध्यान दिलाया है,उसका इतना ही मतलब है कि एक रूप उसका भी रहे, जिससे वह सब कोर कसर दूर कर अपनी किसी और बहनों से पीछे न रहे, और इस योग्य बन जाये कि उसे लोग राष्ट्रभाषा के सिंहासन पर बिठला सकें।
- हरिऔध
ता. 13/6/1935 ई.