भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूमिका / डी. एम. मिश्र : ग़ज़ल संचयन / जीवन सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

                 प्यार के सरोवर में आग

न मैं कबीर न ग़ालिब न मीर न मोमिन ही
मिला जो जख्म जमाने से वही गाता हूँ |

उक्त शे’र को कहने वाले और इस समय की हिन्दी स्वभाव की ग़ज़ल लिखने वाले
डी एम मिश्र न कबीर हैं , न ग़ालिब हैं , न मीर और न ही मोमिन हैं | वे कुछ हैं
तो सिर्फ डी एम मिश्र हैं | और यही एक शायर या कवि को होना भी चाहिए |
जिस कवि के यहाँ उसकी अपनी कवि-व्यक्तित्व-समृद्धि नहीं है , वह दूसरों के पीछे चलने वाले एक अनुगामी से अधिक नहीं होता | कविता की विविधाभामयी रचनात्मकता ही उसे निजता प्रदान करती है | यह अलग बात है कि हर कवि अपने समय को लांघकर और उससे बचकर नहीं जा सकता | लेकिन वह एक जैसे समय के भीतर से अपना रास्ता अलग बना सकता है | वह अलग तरह से सोच सकता है | वह संकीर्ण सोच को त्यागकर संस्कृति की उदार और उदात्त परम्परा से जुड़ सकता है | वह चाहे तो कबीर , मीर , ग़ालिब सरीखे अपने पूर्वजों से भी यह सब सीख और जानकर उसे अपने समय की तारीख से जोड़ सकता है | वह अपने जीवनानुभवों से ऐसा बहुत कुछ कह सकता है जो दूसरों के पास नहीं है और जो उसे दूसरों से मिलाता है और अलग भी करता है | जैसे डी एम मिश्र कहते हैं कि ग़ज़ल कुछ ऐसी होनी चाहिए कि उसमें से मिट्टी की महक आये और ऐसा लगे कि जैसे गंहूँ की बाल में से किसी सुन्दरी के कंगन की खनक आ रही है | गेंहूँ की बाल में से कंगन की खनक आना सौन्दर्य के आभिजात्य से अलग उसकी साधारणता का वह नया रास्ता है जो लोकतांत्रिक समय में लोकतान्त्रिक जीवन मूल्यों के प्रति सजग रहने से ही आता है | इस तरह मिश्र जी अपनी ग़ज़लों में मेहनत और सौंदर्य दोनों का मेल कराते हुए उसके आभिजात्य से अलगकर उसे साधारण से मिलाते हैं | साधारण के सौन्दर्य को उद्घाटित करना ही इस युग की समकालीनता है | यह उन प्रेमचंद का रास्ता भी है जो लगभग एक सदी पहले सौन्दर्य की पुरानी कसौटी को बदलने की सलाह साहित्यकारों को दे रहे थे | सौन्दर्य की कसौटी बदलना यद्यपि कोई आसान काम नहीं है | मिश्र जी इस जीवन तथ्य से भी वाकिफ हैं कि समाज में पूंजीपति और शासक वर्ग त्याग करने की बजाय भोग करने में अधिक विश्वास रखता है , उसके पास समाज से लिया हुआ इतना सरप्लस होता है जिसमें से वह जौ के बराबर ही यदा कदा त्याग करता है फिर भी उसके पास इतना बच जाता है कि वह उसकी सौ पुश्तों से भी नहीं बीतता | सच तो यह है कि समाज में उसका कमजोर वर्ग ही ज़िंदगी भर त्याग करता रहता है | वह अपने श्रम से जितना कुछ अर्जित करता है वह सब दूसरों के हिस्से चला जाता है | उसके श्रम के सरपल्स से ही पूंजीपति वर्ग पूंजी का एकछत्र स्वामी बनता जाता है | अतः मिश्र जी का यह कहना उनकी गहरी समझदारी का सूचक है कि वे अपनी ग़ज़लों में कमजोर वर्ग के त्याग जैसे जीवन मूल्य को रेखांकित करता हैं -------
कितने अमीर होंगे दस बीस फीसदी बस
कमजोर आदमी का मैं त्याग लिख रहा हूँ
यह उनकी पक्षधरता का भी एक सबूत है जिसमें वे समाज के ताकतवर अमीर वर्ग के सामने कमजोर के पक्ष से लिख रहे हैं | यह चुनाव आसान नहीं होता | लोग तो ताकतवर के पक्ष में खड़े रहने को ही समझदारी मानते हैं किन्तु यह कैसा कवि है जो अपनी ग़ज़ल में कमजोर की बात कर रहा है | उसके त्याग को रेखांकित कर रहा है | यह समाज में खींची गयी लीक को तोड़कर चलने जैसा काम है | इस तरह के अनेक जीवन—प्रसंग मिश्र जी की ग़ज़लों की अंतर्वस्तु का निर्माण करते हैं |यह एक जीवन—द्वंद्व है जिसमें कवि को अपना पक्ष चुनना ही पड़ता है जो इस द्वंद्व से बचकर तटस्थता का वरण करते हैं वे शब्द—चमत्कार दिखलाकर काव्य—भ्रम जरूर पैदा कर सकते हैं किन्तु अपने समय की शायरी से वे महरूम रहते हैं |कविता दरअसल तभी हो पाती है जब वह अपने समय के जीवन—मूल्यों की खोज में मुब्तिला रहकर उनको रचना का आंगिक हिस्सा बना देती है | जो लोग घनघोर अन्धकार में पूनम की ग़ज़ल कहते हैं और फटे वस्त्रों के सामने रेशम के वस्त्रों की बातें करते हैं मिश्र जी की पटरी ऐसे लोगों से नहीं बैठती | उनका ध्यान ऊंचे किस्म की शराब पीने वालों की बजाय हमेशा गरीब के पानी पर ध्यान रहता है ------“गरीबों को नहीं मिलता है पीने के लिए पानी / मगर तुम तो ग़ज़ल व्हिस्की
गुलाबी रम की कहते हो |” पूंजीवादी व्यवस्था वाले लोकतांत्रिक समाजों में भी एक बड़ा वर्ग जहां भोली मछलियों जैसा होता है वहीं दूसरा छोटा सा ताकतवर वर्ग उन बगुलों का रहता है जो हमेशा से मछलियों को अपना भोजन बनाये रहता हैं | यहाँ भी कवि बगुलों के पक्ष में नहीं है वह मछलियों को सावधान करता हुआ कहता है -----------“ओ मेरे तालाब की भोली मछलियों सावधान / ये वही बगुले हैंजो कहते हैं त्यागी हो गये |”
यह है मिश्र जी की ग़ज़ल की साधारणता के पक्ष वाली अपनी ज़मीन | यहाँ पर यह बतलाना गलत नहीं होगा कि मिश्र जी ने उर्दू—फारसी के लोकप्रचलित यानी आमफहम शब्दों का प्रयोग करते हुए हिन्दी भाषा की प्रकृति और विन्यास के अनुसार ग़ज़लें लिखी हैं इसलिए उनका मिजाज़ हिन्दी की तरफ झुका हुआ है किन्तु उसका जो व्याकरण और अनुशासन है वह फारसी और उर्दू से होता हुआ अपनी सहोदरी हिन्दी तक आया है इसलिए बहर के अनुशासन को मानते हुए भी उनके सामने कई स्थानों पर बहर का संकट भी उपस्थित हुआ है | जहां पर उन्होंने हिन्दी की अपनी शब्द—प्रकृति के अनुसार कुछ छूट भी ली है ताकि शब्द और अर्थ दोनों के सौन्दर्य की संगति बनी रहे | मिश्र जी की खासियत यह है कि उन्होंने ग़ज़ल के अपने छंदीय अनुशासन का निर्वाह करने की पूरी कोशिश की है किन्तु हिन्दी और उर्दू के शब्दोच्चारण की भाषिक प्रकृति अलग अलग होने के कारण कुछ जगहों पर ऐसी दुविधा भी उत्पन्न हुई
हैं जहां शब्द की हिन्दी प्रकृति होने की वजह से बहर भंग होने का दोष भी आ गया है जिसे उन्होंने शब्द और अर्थ की चारुता भंग न होने की स्थिति के अनुसार न चाहते हुए भी रख लिया है | यह सच है कि हिन्दी—उर्दू सहोदरी हैं और दोनों का व्याकरण भी लगभग एक जैसा ही है किन्तु लिपि और कुछ शब्दोच्चारण के फर्क से उसकी संगीतात्मकता में फर्क आ जाता है |
मिश्र जी ने ग़ज़ल की कला को भी हिन्दी की अभिधा शब्द-- शक्ति के अनुसार ज़्यादा बरता है |इस वजह से उनके यहाँ ग़ज़ल का कथ्य भी सीधे सीधे सपाट कथन के रूप में खूब आता है जिससे ग़ज़ल में सादगी और सरलता जैसे व्यावहारिक गुण स्वतः ही आ जाते हैं | सरलता में व्यंजकता पैदा करना बहुत मुश्किल काम होता है लेकिन सपाटता का ख़तरा मोल लेकर भी मिश्र जी उसे छोड़ते नहीं | सवाल उठ सकता है कि ग़ज़ल में इतनी सरलता और सादगी की कला को उन्होंने कहाँ से सीखा है ? तथ्य यह है कि उन्होंने गजल कहने की कला मंच की वाचिक और श्रुति परम्परा से सीखी है | बंद कमरे में बैठकर ग़ज़ल कहना और मंच को ध्यान में रखकर श्रोता को ध्यान में रखकर बात कहने में और बात में बहुत फर्क आ जाता है | वाचिक परम्परा में कलाकार की परीक्षा मैदान में होती है | इस परीक्षा से मिश्र जी शुरुआती दौर में खूब गुजरे हैं | जैसे दुष्यंत और अदम दोनों की ग़ज़लों की परख वाचिक परम्परा में शामिल रहने से भी हुई | कहना न होगा कि वाचिक और लिखित परम्पराओं में काव्य भाषा का व्यवहार बदल जाता है | इसलिए वाचिक परम्परा की ग़ज़ल अधिक सहज , सरस और सरल होती हैं | यह स्वभाव मिश्र जी की ग़ज़लों का भी है | वे मंच को नहीं , उसके बाजारूपन को गलत मानते हैं और उससे बचते भी हैं इसलिए मंचीयता के जिस गुण से दूसरे गज़लकार महरूम रहते हैं वह गुण मिश्र जी
की ग़ज़ल में मंच की वाचिक और श्रुति-सम्बन्ध परम्परा का उपयोग करते रहने से आ गया है | मंच से ही उन्होंने निदा फाजली , बशीर बद्र , बसीम बरेलवी सरीखे शायरों की सरलता में वैशिष्ट्य पैदा करने का गुण ग्रहण किया है | अजमल सुल्तानपुरी और तेवर सुल्तानपुरी की संगत भी उन्होंने की है जिससे सादगी जैसे गुण को उन्होंने कमाया है | यहीं से उनकी ग़ज़ल के कथ्य और भाषा दो में में भारतीय संस्कृति की बहुत बड़ी और बुनियादी विशेषता ---सामासिकता जैसे गुण का समावेश हुआ है जो आज के समय में विरल होता जा रहा है | ग़ज़ल की इस तरह की सामासिक भाषा का अंदाज़ भी मिश्र जी को इसी संगत और सान्निध्य से मिला है ----------
खुदा या तो यही कर दे किनारे पर लगे कश्ती
खुदा या फिर यही कर दे कि साहिल ही बदल जाए

मिश्र जी आधुनिक युग के ऐसे कवि हैं जिनको अभी तक अपने खुदा पर भरोसा है | लेकिन कहीं भी उनकी यह आस्तिकता संकीर्णता का शिकार नहीं हुई है | आज के हालातों में यह भी कम बात नहीं है कि उनका भारत की हज़ारों साल की सामासिक संस्कृति और सामासिकता में सच्चा और पूरा विश्वास कायम है | इस मामले में वे कुछ भी छिपाते नहीं हैं | वे जहां ग़ज़लों में अपनी आस्तिकता को व्यक्त करते हैं वहीं वे उस संदेह से भी मुक्त नहीं हैं जो व्यावहारिक ज़िंदगी में सामने आता है | ऐसी स्थिति में वे कहते हैं ---------“ऐसे खुदा का क्या करूँ जो बुत बना रहे / बोले न कुछ सुने न कुछ रहे भी दूर दूर |” इसी तरह से जब वे गरीबों –लाचारों –असहायों और मेहनतकशों को भारी कष्ट में पड़े हुए देखते हैं तो ऐसे सवाल भी दागने में पीछे नहीं रहते -------“ कहाँ ले के जाऊं मैं फ़रियाद अपनी / गरीबों का कोई खुदा ही नहीं है | “ इसी तरह से एक अन्य शे’र में उन्होंने कहा है ------ “ रोज़ दर्शन करें लोग भगवान् के / हम बहुत ढूँढते हमको दिखते नहीं | “ जैसे जैसे मिश्र जी की ग़ज़ल—यात्रा आगे बढ़ती है वैसे वैसे उनमें कई तरह के बदलाव भी होते हैं | शुरुआत में वे मंचीय प्रभाव से वैयक्तिक सौन्दर्यानुभूति की रवायती ग़ज़लें भी खूब कहते रहे हैं जिसे उन्होंने कभी पूरी तरह से छोड़ा नहीं किन्तु इनमें भी वे पूरी तरह से रवायती नहीं रह पाते | यहाँ भी वे अपनी सौन्दर्यानुभूति में ज़िंदगी के श्रम--सौन्दर्य से सम्बन्धित किसानी सरोकारों को जब संयुक्त करते हैं तो ग़ज़ल की प्रकृति ही बदल जाती है उसमें नयापन आ जाता है | मसलन उनकी एक ग़ज़ल मंचों पर और पाठकों में बहुत लोकप्रिय हुई -----“
कभी लौ का इधर जाना , कभी लौ का उधर जाना
दिये का खेल है तूफ़ान से अक्सर गुजर जाना
रूप का ऐसा गतिशील बिम्ब इस बात का सूचक है कि कवि ने उसकी नाज़ुक और नफासत की लीक से अलग हटकर सौन्दर्य को तूफ़ान की स्थितियों से भी जोड़कर देखा है जो इस नए ज़माने में ही संभव था | अपने पहले दौर में वे सौन्दर्यानुभूति के सरोकारों को लाते हैं और यहीं से वे अपने सरोकारों को सामाजिक---राजनीतिक सरोकारों के यथार्थ से जोड़ देते हैं | इस प्रक्रिया में वे कई बार तो सपाट प्रकृति की राजनीतिक गज़लें भी कहने लगते हैं | इस तरह से वे ग़ज़ल के लिए अपनी एक अलग से पुख्ता जमीन तैयार करते हैं और अपने साथी अदम गोंडवी जैसे ग़ज़लकारों के असर से ग़ज़ल को शहर के पूंजीकेंद्रित आभिजात्य और चमक—दमक की बारीकियों से बचाकर इंसानियत के तकाजे से वहाँ ले आते हैं जहां उसका दम घुटने से उसे बचाया जा सके | इस तरह से मिश्र जी की ग़ज़ल का रास्ता लोकप्रियता और शास्त्रीयता के बीच से कहीं होकर जाता है | इस आलेख के शुरुआत में ही उद्धृत मिश्र जी के शे’र से ग़ज़ल जैसी विधा में उनके पास कहने के लिए कवियों की परम्परा से और अलग उनका अपना क्या है यह भी पता चलता है | यहाँ एक तो ज़ख्म है,दूसरे वह ज़माना है जिसकी व्यवस्था से उसे ज़ख्म मिलते हैं | यही आधारभूमि है मिश्र जी की परवर्ती ग़ज़लों की | इसके अलावा उनके यहाँ जीवन की वे सौन्दर्यानुभूतियाँ भी है जिसके लिए मनुष्य सारे प्रयत्न करता है | वे सद्भावनाएं और सदिच्छाएं भी उनकी ग़ज़लों में मौजूद हैं जो आदमी को आदमी होने के लिए जरूरी होती हैं | वे किसी अच्छे मोटीवेटर के रूप में भी ग़ज़लों में दिखाई पड़ते हैं | उनकी ग़ज़लों का एक महत्वपूर्ण आयाम आदमी के उस नए व्यक्तिवादी चरित्र का भी है जो इस नए जमाने में बनता जा रहा है | जिससे एक वर्ग और उसके कुछ व्यक्तियों का फायदा होता है जबकि समाज का नुकसान ही नुकसान | इस वजह से इस व्यवस्था से भारी लाभ लेने वाला वर्ग हमेशा व्यक्तिवादी व्यवस्था के पक्ष में रहता है | अपनी गजलों के माध्यम से मिश्र जी ने इस तरह के सवाल उठाये हैं | इस बारे में उनकी एक ग़ज़ल बहुत मशहूर हुई जिसमें उन्होंने साफ़ साफ़ शब्दों में कहा कि मौजूदालोकतंत्र और पंचायती राज व्यवस्था में जिस तरह का नया गाँव बना है वह भ्रष्टाचार की कीचड़ में पूरीतरह से सान दिया गया है | वह स्वतः इस कीचड में नहीं सना है वरन उसे मौजूदा व्यवस्था ने साना है | इस व्यवस्था का लाभ उन चंद जन—प्रतिनिधियों और नौकरशाहों को मिला है जो आम मेहनतकश को लूट लूट कर खा रहे हैं _ मिश्र जी की यह ग़ज़ल इस प्रकार है -----------------
गाँवों का उत्थान देखकर आया हूँ
मुखिया का दालान देखकर आया हूँ
मनरेगा की कहाँ मजूरी चली गयी
सुखिया को हैरान देखकर आया हूँ
कागज पर पूरा पानी है नहरों में
सूख गया जो धान देखकर आया हूँ
कल तक टूटी छान न थी अब पक्का है
नया नया परधान देखकर आया हूँ
लछमनिया थी चुनी गयी परधान मगर
उसका ‘ पती—प्रधान’ देखकर आया हूँ
देश को आज़ादी मिलने के बाद नए नए लोकतंत्र में जिस तरह से पूंजीवादी व्यवस्था ने भ्रष्टाचार का दूर दूर तक विस्तार किया यह मिश्र जी के शायर का मुख्य निशाना रहा है | लोकतंत्र को पतन की राह पर ले जाने वाले ऐसे ही लोग होते हैं | इनमें अफसरों से लगाकर कर्मचारियों , नेताओं , पूंजीपतियों ,कारकूनों , दलालों आदि सभी की हिस्सेदारी और मिलीभगत है जिसको मिश्र जी के गज़लकार ने सबसे अधिक उद्घाटित किया है | आज भ्रष्टाचार एक असाध्य रोग की तरह हो गया है | उक्त ग़ज़ल तो इस यथार्थ से परिचित करा ही रही है कि पंचायती राज के माध्यम से गाँवों तक भष्टाचार का किस कदर विस्तार हुआ है | इसकी पीड़ा और त्रासदी आम मेहनतकश को भोगनी पड रही है और उनकी कोई सुनने वाला नहीं है | सुने भी कौन , जो सुनने वाला है वही इस कीचड में सना हुआ है | इसके अलावा भी और बहुत कुछ है जो भ्रष्टाचार के अन्य रूपों का पर्दाफ़ाश करता है | मिश्र जी का पांचवां और अब तक का अंतिम ग़ज़ल -संकलन “ लेकिन सवाल टेढा है “ दो साल पहले 2020 में निकला है उसमें भी देश में फैले इस नासूर की पूरी खबर कवि ने ली है ------एक ग़ज़ल के सातों अशआर ही अमरबेल की तरह फैलते भ्रष्टाचार पर हैं इनमे से अंतिम दो यहाँ पर उद्धृत हैं ------
हर तरफ बह रही है भ्रष्ट नदी कचरे की
कौन बच पायेगा बेदाग़ भला ऐसे में
जिसको भी देखिये लालच में यहाँ अंधा है
आप ही ढूंढिए ईमान किसी बंदे में |
“ देखकर आया हूँ “ रदीफ़ पर लिखी ग़ज़ल जीवन के उन कटु सत्यों को अपने पाठक—श्रोता के
सामने रखती है जिनका पता तो उसे होता है किन्तु वह अपनी व्यथा को व्यक्त नहीं कर पाता | कवि उनकी तरफ से ही जैसे उनकी व्यथा को व्यक्त कर रहा है | यह कवि की संवेदनशीलता का एक प्रमाण है | मिश्र जी इस तरह की लम्बी रदीफ़ों में एक गणितग्य की तरह से उसे पूरा सिद्ध करते हैं | उसका कोई छोर छोड़ते नहीं | उन्होंने लम्बी , छोटी , मध्यम और एक शब्द की रदीफ़ में अपनी गज़लें कही हैं किन्तु लम्बी रदीफ़ों में तो जैसे उनको अपने विषय को सिद्ध करने की महारत हासिल है | इसी तरह उन्होंने “ ऐसा कभी न हो “ रदीफ़ से ऐसा बहुत कुछ कह दिया है जो एक बेहतरीन मनुष्य की दृष्टि में अच्छा नहीं है | इस रदीफ़ पर उनकी एक ग़ज़ल से कुछ अशआर देखिये ----
नम मिट्टी पत्थर हो जाये ऐसा कभी न हो
मेरा गाँव शहर हो जाये ऐसा कभी न हो
बेटा बाप के आगे हो तो अच्छा लगता है
बाप के वो ऊपर हो जाये ऐसा कभी न हो
मेरे घर की छत नीची हो मुझे गवारा है
नीचा मेरा सर हो जाये ऐसा कभी न हो
गाँव में जब तक सरपत है बेघर नहीं है कोई
सरपत संगमरमर हो जाये ऐसा कभी न हो |


इस तरह से मिश्र जी अपनी ग़ज़लों में व्यवस्थागत विडम्बनाओं का एक पूरा खाका पेश करते हैं और इस बात के लिए अपने पाठक को सचेत और सावधान भी करते हैं कि यह सब लोकतांत्रिक मूल्यों की जड़ों में मट्ठा डालने का काम है | यही कारण है कि आम जन में आज लोकतंत्र जैसी सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली के प्रति भी गहरी निराशा का भाव उत्पन्न हो गया है जिसमें अपनी शातिर चालों और समीकरणों से कमेरे वर्ग के ऊपर एक लुटेरा वर्ग उसका शासक वर्ग बन जाता है | यद्यपि यह लोकतांत्रिक पद्धति का दोष न होकर उस पूंजीवादी व्यवस्था का दोष है जिसे हमारे यहाँ लोकतंत्र के साथ नत्थी कर दिया गया है | जिससे पूंजीवादी व्यवस्था की बदनामी के बजाय लोकतंत्र की बदनामी की जाती है | इसी से समाज में एक समय ऐसा आता है जब लोग तानाशाही के पक्ष में हो जाते हैं | काश कि लोकतंत्र के साथ सच्ची और वैज्ञानिक समाजवादी व्यवस्था होती तो उसका लाभ सिर्फ ऊपर के कुछ लोगों को न मिलकर नीचे तक पूरे समाज को मिलता तो लोकतांत्रिक व्यवस्था कुछ और ही तरह की होती | पूंजीवादी व्यक्तिवादी व्यवस्था होने के कारण ही आज देश में लोकतंत्र की पंचायती राज—व्यवस्था कुछ ऐसी बनी

है जिसमें चोर---लुटेरों की ही पौबारह हैं | जिसमें तथाकथित जन—प्रतिनिधि और नौकरशाह दोनों ही आम जन को मिलकर लूटते हैं | कहना न होगा कि इसी ज़मीन पर मिश्र जी की ग़ज़लों का भवन निर्मित हुआ है | गाँवों की सादगी इनके यहाँ एक जीवन मूल्य की तरह से आती है जिससे इनकी ग़ज़ल का स्वरुप भी सादगी को अपना धर्म मानकर निर्मित होता है | भले ही धनाढ्य होता मध्यवर्ग इसे ग्रामीण सभ्यता का पिछडापन कह सकता है किन्तु सादगी ही एक ऐसा जीवन मूल्य है जो इस सभ्यता और पृथ्वी दोनों को ही उपभोक्तावाद की मार से बचा सकती है | आज जिस तरह से पर्यावरण और जलवायु जैसे वैश्विक संकट पैदा हुए हैं उससे पूरी मानवता एक गंभीर संकट के दौर से गुजर रही है | इसलिए सादगी जैसे जीवन मूल्य का महत्व और बढ़ जाता है | मिश्र जी की शुरुआती ग़ज़लों में ही वे हुस्न की बातों के साथ गाँव की सादगी की बात कर रहे थे यानी सादगी उनके लिए किसी सौन्दर्य मूल्य से कम नहीं है ------
किसी जन्नत से जाकर हुस्न की दौलत उठा लाये
हमारे गाँव से क्यों सादगी लेकिन चुरा लाये
यह कहना गलत नहीं होगा कि शहरों की वर्तमान पूंजीवादी साम्राज्यवादी सभ्यता कुछ पैसों के सिवाय मनुष्य को और कुछ देती ही क्या है ? सच तो यह है कि कुछ पैसों के बदले में वह उसका मनुष्यत्व ही छीन लेती है | जैसे जैसे वस्तुओं का महत्व मनुष्य जीवन में बढ़ता जाता है वैसे वैसे उसकी इंसानियत कम होती जाती है | वस्तुओं के बदले में वह उसे अजनबीपन देती है और उसे अकेला करती जाती है | वह आत्मकेंद्रित होता जाता है और ज्ञान की जगह पर सूचनाएं ही उसके लिए ज्ञानकोश का काम करने लगती हैं | संपर्कों को वह रिश्तेदारी कहने और मानने लगता है | फिर दोस्ती भी एक जीवन मूल्य नहीं रहकर स्वार्थ—पूर्ति का साधन बन जाती है | इस तरह के अदाज़ वाले शे’र मिश्र जी की गजल में इस ज़माने की हकीकत को दिखाने की दृष्टि से बेहद मौजूं बन पड़े हैं ------
बताओ चार पैसे के सिवा हमको मिला ही क्या
मगर सब पूछते हैं हम शहर से क्या कमा लाये
इतना ही नहीं शहरों में विकसित नए बाज़ार और पूंजी की यह सभ्यता जहां एक तरफ आदमी के जीवन को नयी नयी सुविधाओं से लैस करती हैं वहीं वह उसके ज़मीर को भी बाज़ार में बिकने वाली वस्तुओं की तरह बिकाऊ बना देती है | पूंजीवादी व्यवस्था जहां एक ओर सामाजिक गतिशीलता को तीव्र करती है वहीं दो बड़े संकट भी पैदा करती है एक विषमता का संकट और दूसरा नैतिकता का संकट | ज्यों ज्यों पूंजीवादी तरीके का विकास होता है त्यों त्यों वर्गीय खाई और गहरी एवं चौड़ी होती जाती है जिससे विषमता का संकट पैदा होता है | चूंकि पूंजी का वितरण भी बहुत विषम होता जाता है इसलिए व्यक्ति और समाज की सामूहिक नैतिकता भी क्षीण एवं दुर्बल होती जाती है और एक दिन आता है कि लोग अनैतिकता को ही युग की ‘नैतिकता’ के रूप में स्वीकार कर लेते हैं | ऐसे वातावरण में युग—सम्बद्ध कविता और शायरी एक तरफ समता जैसे मूल्य और दूसरी तरफ एक नयी लोकतांत्रिक नैतिकता के द्वंद्व में अपनी रचनात्मक भूमिका का निर्वहन करते हैं | डी एम मिश्र की ग़ज़लों में इस तरह की
रचनात्मक स्थिति को सहजता से महसूस किया जा सकता है | उनकी ग़ज़ल की यही ज़मीन उनको समकालीन बनाती है | पूंजीवादी व्यवस्था का परिणाम यह होता है कि आदमी को अपना ज़मीर बचा पाना बहुत मुश्किल होता जाता है |ऐसे में कविता के मूल्यधर्मी साहचर्य से कवि उसे बचा पाने की खुशी भी अपने एक शे’र में व्यक्त किये बिना नहीं रहता --------
हज़ारों बार इस बाज़ार में बिकना पडा फिर भी
खुशी इस बात की है हम ज़मीर अपना बचा लाये
वैसे बिककर ज़मीर बचा पाना आसान नहीं होता |इसका तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि आज बाज़ार से कोई दूर नहीं रह सकता किन्तु सादगी से रहने वाला व्यक्ति अपना ज़मीर बचा सकता है और बाज़ार के उपभोक्तावादी जाल में फंसने से बच सकता है | यह दरअसल शहर और गाँव की आपसी टकराहट नहीं है कि कवि शहर को किसी कटघरे में खडा करने के उद्देश्य से यह सब लिख रहा है उसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि जिस तरह की पूंजी केन्द्रित शहरी सभ्यता को आधुनिक मनुष्य ने बना लिया है उसकी कुछ सुविधाओं के अलावा उसने मनुष्य का बहुत कुछ ऐसा छीन भी लिया है जो उसे मनुष्य की श्रेणी से ही च्युत करता जाता है | कवि का यहाँ शहर से कोई विरोध नहीं है वरन उस व्यवस्था से है जो मनुष्य केन्द्रित न बनाकर पूंजी केन्द्रित बना देती है | अब तो इसके प्रभाव से हमारे गाँव भी अछूते नहीं रह गए हैं | पूंजीकेंद्रित इस व्यवस्था का फैलाव सर्वत्र हो गया है | “गाँवों का उत्थान देखकर आया हूँ “ –मतले वाली ग़ज़ल में वह इसी तरफ संकेत करता है | जब कुछ व्यक्तिओं के पास सरप्लस पूंजी संचित हो जाती है तो उससे जिस तरह का भ्रष्टाचार समाज में फैलता है वह समाज की अंतरात्मा को खोखला करता जाता है | सरप्लस पूंजी वाला वर्ग दूसरों को पूंजी की प्रतिस्पर्धा में पराजित करता जाता है और अभावग्रस्त वर्ग के लिए ऐसी कोई जगह नहीं छोड़ता जहां वह भी दो घड़ी चैन की सांस ले सके | कवि ने चूंकि बैंक की नौकरी की है इसलिए उसे मालूम है कि बैंक से किस तरह से गाँवों के धनाढ्य दलाल ताकतवर लोग किस तरह का फर्जीवाड़ा करते और कराते हैं | यहाँ पर यह बतलाना भी प्रासंगिक होगा कि मिश्र जी की गज़लें कल्पना पर कम हकीकत पर ज्यादा निर्भर हैं इसलिए उनके यहाँ उन छोटी छोटी रोजमर्रा की सचाइयों को सजगता के साथ उकेरा गया है जो हमारी आदमीयत का क्षरण करती हैं | उनके यहाँ जुगनू की दुम में मशाल जलने का एक अद्भुत बिम्ब किस तरह हकीक़तबयानी करता है यह उनकी ग़ज़ल कला का एक सबूत है -------
फिर आ गयी है नयी योजना निमरा करे सवाल
जुगनू की दुम में रह रहकर कैसे जले मशाल
गज़लकार के सामने इस व्यवस्था की खामियां एक एक कर खुलती जाती हैं , जिनमें अच्छा आदमी पिस रहा है और बुरा आदमी गुलछर्रे उड़ा रहा है | सच तो यह है कि ऐसी व्यवस्था में हर आदमी बुराई की राह को तलाश करता है क्योंकि उसके सामने उदाहरण ही इस व्यवस्था के भ्रष्ट चरित्र वाले मालदार लोगों के होते हैं | ऐसी समाज विरोधी व्यवस्था के प्रति यह कवि का खुला प्रतिरोध है उसका क्षोभ है जिससे वह अपने पाठक को परिचित कराता चलता है | इसी में उसकी वह कामना भी छिपी हुई है जो ऐसी व्यवस्था को बदलने की दिशा में उसे ले जाती है लेकिन उस व्यवस्था का कोई नया नक्शा फिलहाल उसके पास नहीं है | फिर भी वह कहीं कहीं समता जैसे इस तरह के बिम्ब अपने अशआर में लाता है ------
न कुंडी है न ताला है न पहरा है न पाबंदी
यहाँ पर सब बराबर हैं ये उसका शामियाना है


( 2 )
मिश्र जी की पहली कविता आगरा से निकलने वाले ‘युवक’ नाम के पत्र में 1968 में प्रकाशित हुई थी | इसके हिसाब से उनकी रचना यात्रा की अब तक की अवधि पांच दशक की बैठती है लेकिन ग़ज़ल लेखन की शुरुआत वे सबसे बाद में 2000 ई के आसपास करते हैं | इससे पहले वे 1968 के आसपास से 2000 ई तक गीत व कवितायेँ लिखते रहे हैं | इस तरह से काव्य रचना की एक सुदृढ़ आधारभूमि पर वे ग़ज़ल लेखन का काम करते हैं | उनको अपने परिवार से साहित्यिक संस्कार के रूप में तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ की कविता का संस्कार मिला है जिसे उन्होंने अपनी समझ और जीवनानुभवों के आधार पर आधुनिक कविता में तब्दील किया | जब वे ग़ज़ल की संगति में आये तो उनको अपने शहर सुल्तानपुर से ग़ज़ल का वह मंच और वातावरण मिला जिस पर मजरूह सुल्तानपुरी की गहरी छाप होने से इनकार नहीं किया जा सकता | शुरुआत में उनका रवायती यानी पारंपरिक ग़ज़ल पर ही पूरा यकीन रहा | लेकिन यहीं मंचों पर उनको प्रगतिशील और जनवादी तेवर की ग़ज़ल के लिए मशहूर हो चुके अदम गोंडवी का नज़दीकी साथ मिला , दूसरे यहीं ‘युग तेवर “ पत्रिका के सम्पादक श्री कमलनयन की
सलाह से वे ग़ज़ल को आधुनिक और समकालीन तेवर की बनाने की दिशा में अग्रसर हुए | इसी का परिणाम है उनकी ग़ज़ल का एक नया स्वरुप जो उनके अब तक प्रकाशित पांच ग़ज़ल संग्रहों में से अंतिम तीन संग्रहों यानी “आईना—दर—आईना’,( 2016 में प्रकाशित ) ‘वो पता ढूंढ़ें हमारा’ ( 2019 )तथा “लेकिन सवाल टेढा है “ (2020 ) में खासतौर से उद्घाटित हुआ है | इनसे पहले वे 2006 में ‘उजाले का सफर’ और 2012 में ‘रोशनी का कारवाँ’ प्रकाशित करा चुके थे | यहाँ पर यह बतलाना भी मुनासिब होगा कि ग़ज़लों से पहले 1989 से 2009 तक उनके छह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके थे | इस तरह से ग़ज़ल पर आने से पहले कविता की एक पुख्ता ज़मीन उन्होंने बना ली थी | यहाँ पर यह बतलाना भी जरूरी है कि “आईना—दर—आईना” संग्रह में कवि ने इससे पहले के दो संग्रहों की प्रमुख ग़ज़लों को भी संकलित कर लिया है | इनके अलावा भी उन्होंने कुछ नयी गज़लें लिखी हैं | इन सभी को मिलाकर मिश्र जी ने उनकी लगभग एक सौ पचपन ग़ज़लों के एक प्रतिनिधि संचयन और उसकी प्रस्तावना लेखन का दायित्व मुझे सौंपा , जिसे मैंने उनकी पसंदगी और ग़ज़लों की लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए उनकी सहायता से इस नए संचयन में संकलित किया है जिससे एक ही जगह पर मिश्र जी के ग़ज़ल --
सरोवर में अवगाहन किया जा सके | कोशिश की गयी है कि उनकी ग़ज़ल के सभी आयाम इसमें आ जांयें लेकिन ऐसा होता कहाँ है ? फिर भी कुछ न कुछ छूट ही जाता है | बहरहाल |
जैसा कि सर्वविदित है कि ग़ज़ल के व्याकरण के हिसाब से इसका रूपाकार अपनी तरह का ही नहीं वरनएक ख़ास तरह का होता है जिसमें विषय की एकता और आतंरिक सम्बद्धता के बजाय विषय की असंबद्धता के आधार पर उसके रदीफ़ , काफिये और बहर से तय प्रतिमानों के आधार पर तगज्जुल पैदा किया जाता है | जिससे ग़ज़ल का हरेक शे’र किसी दूसरे शे’र से कोई वास्ता और मेल नहीं रखता | ऐसी असम्बद्ध स्वाधीनता शायद ही दुनिया की शायरी में किसी और विधा में हो |यही इस विधा की ताकत है और यही इसकी सीमा भी | इसमें चाहे तो एक गज़लकार एक ही ग़ज़ल में देश काल और दुनिया के आरपार कहीं की सैर करा सकता है | इस वजह से इस कला में कथ्य की एकतानता न होकर रूपगत एकता अधिक होती है | यद्यपि हिन्दी स्वभाव की ग़ज़लों में हिन्दी की प्रकृति के अनुसार रदीफ़, काफिये , बहर का अनुशासन होने के बावजूद वह सम्बद्ध कविता के दायरे में आती जा रही है | बहरहाल , इसीलिये ग़ज़ल में उसके व्याकरण को समझना बहुत ज़रूरी होता है | ग़ज़ल के हरेक शे’र में कोई ऐसी बात कही जाती है जो कथन की विशेष भंगिमा और वक्रता के साथ ज़िंदगी से गहरा वास्ता भी रखती हो | जो चेतन की ही नहीं उसके अवचेतन की खबर भी ले आती हो | इतना ही नहीं , जो बाहर की नहीं भीतर की बात ज़्यादा कहती हो | जिसे थोड़ा—बहुत जानते सब हैं किन्तु कह नहीं पाते | एक शायर उसी भीतर की बात को अपने श्रोता और पाठक के सामने जब रखता है तो उसे सुनकर श्रोताओं को एक तरह का सुखद आश्चर्य होता है | यही सुखद आश्चर्य ग़ज़ल का अंदाज़े बयां तय करता
है | इसलिए कुछ लोगों ने इसे सिर्फ ‘कहने की कला’ ही माना है लेकिन समय बदलता है युग बदलते हैं और लोगों के विचारों में परिवर्तन होता है | इसलिए ग़ज़ल को भी बदलने से नहीं रोका जा सका | युग परिवर्तन का मतलब होता है युग चेतना और युग विवेक का परिवर्तन | पुरातनता के सामने नवीनता का वरण और पुरानी मान्यताओं और धारणाओं के विपरीत जीवन के नए सरोकार , जिसका मतलब है इंसानियत के लिए पुरानी उन सभी तरह की दीवारों को गिराना , जो इंसानियत के रास्ते का रोड़ा बनती है | इसका परिणाम होता है कि आदमी के स्वभाव की तरह से ग़ज़ल का आतंरिक स्वभाव और चरित्र भी बदल जाता है | जो गज़लकार परिवर्तन की इस प्रक्रिया में जितना बढ़—चढ़कर शामिल होता है वही युगचेता गज़लकार का दर्ज़ा हासिल कर लेता है | सही अर्थ में ऐसे ही गज़लकार समकालीन हो पाते हैं | जो नया रास्ता बनाता है और दूसरों को दिखाता भी है | दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल की हैसियत यही है जिसने ग़ज़ल की आवाज को अपने समय के लोकतंत्र की आवाज बना दिया | यह तभी संभव है जबकि गज़लकार का विश्व दृष्टिकोण सही हो और जीवन-सत्य पर आधारित हो यद्यपि अधिकाँश कवि—शायर विश्व—दृष्टिकोण की प्रक्रिया से बहुत कम गुजर पाते हैं | वे जैसा समय वैसी चाल को अपनाए रहते हैं और एक तरह की अनुकरणधर्मी ग़ज़ल लिखते रहते हैं ऐसे कवि—शायर कविता के एक बने बनाए ढाँचे और कोटर से बाहर नहीं निकल पाते | यह सुखद बात है कि मिश्र जी ने अपने समय के जीवन की कुछ निचली और बुनियादी सचाइयों से जुड़कर यह कोशिश की है कि वे अपनी ज़मीन अपनी समझ और तरीके से बनाएं | मिश्र जी के ग़ज़ल संसार से होकर जब हम गुजरते हैं तो पाते हैं कि उनके यहाँ ग़ज़ल के पुराने व्याकरण में नये ज़माने की तस्वीर उकेरने की कोशिश एक आसान और गंभीर प्रक्रिया से गुजरती है | ग़ज़ल में चूंकि ग़ज़ल का मतला ही ग़ज़ल के आगे के मेयार को निर्धारित करता है इसलिए इस कला को मतले की कला कहना गलत नहीं होगा | मतले से ही अक्सर पता चल जाता है कि कवि का गंतव्य और मंतव्य क्या है ? वह कितने पानी में है इसका पता भी उसकी ग़ज़ल का मतला ही दे देता है जैसे गाँव की शोभा उसके बाड़े ही कह देते हैं | मसलन मिश्र जी के “ वो पता ढूँढ़ें हमारा ‘ संग्रह की एक ग़ज़ल
का मतला पहली नज़र में ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें कोई ख़ास बात नहीं है | जब वे कहते हैं -------
छुपाकर कोई बात करते नहीं हैं
मगर सबसे हर बात कहते नहीं हैं
यहाँ जो कहा जा रहा है उसमें कवि के अपने व्यक्ति—चरित्र के साथ उस सामाजिक चरित्र की व्यंजना की गयी है जिसमें बात को छिपाया भी नहीं जाता और सबसे कहा भी नहीं जाता | पहले मिसरे में कवि का अपना चरित्र ज़ाहिर हो रहा है जबकि दूसरे मिसरे में उस समाज का जिसमें वह रह रहा है | इन दो मिसरों से हम समाज और व्यक्ति दोनों के चरित्र की सचाई को जान सकते हैं | इसी बहर , और रदीफ़, काफिये से आगे कुछ इस तरह के अशआर बन पड़े हैं ---------
गुमां होगा अपने उन्हें इल्मो फन पर
सरल बात पर वो समझते नहीं हैं
चूंकि रदीफ़ पर काफिया बाँधना है तो यहीं वे अपनी ग़ज़ल की प्रकृति के बारे में भी एक शे’र कह देते हैं जो अक्सर ग़ज़लकारों की एक फितरत की तरह से होता है | इससे हम जान सकते हैं कि ग़ज़ल इशारों की कला मानी जाने पर भी मिश्र जी के यहाँ ऐसा कम ही दिखाई पड़ता है | उन्होंने इसी ग़ज़ल में कहा
है --------

हमारी अदा साफगोई हमारी
ग़ज़ल भी इशारों में कहते नहीं हैं |
मिश्र जी , अदम गोंडवी को उनके जीवनकाल में बहुत मानते रहे हैं आज भी वे बार बार उनको याद करते हैं | जैसे कविता के लिए वे त्रिलोचन और मानबहादुर सिंह को याद करते हैं | मैंने उनकी बातों और साहित्य के अनुभवों में पाया है कि अवध अंचल के पुराने---नए साहित्यकारों की पूरी खबर उनके पास रहती है | कदाचित उनकी ग़ज़लों में जो वर्ग—विवेक नज़र आता है वह नज़रिया उनको अदम से ही मिला है | एक तरह से अदम का उन पर प्रभाव जीवन—दृष्टि का है | इसी प्रक्रिया में दूसरा प्रभाव उनकी पक्षधरता का भी है | वर्ग की समझ और पक्षधरता मिश्र जी की ग़ज़लों में जितनी साफ़ है वैसा आज के ग़ज़लकारों में बहुत कम नज़र आता है | उनके यहाँ बात की मध्यवर्गीय बारीकी भले न हो किन्तु बात की मुखर सचाई की ताकत उनके यहाँ है | इसीलिये मिश्र जी की कविता की ज़मीन उन मध्यवर्गीय ग़ज़लकारों से भिन्न है जो अपने जीवन की चौहद्दी के घेरे से बाहर यदा कदा ही निकल पाते हैं | यह कहना तथ्यात्मक नहीं होगा कि उनकी ग़ज़ल में सिर्फ दूसरों का समन्वय है | सच तो यह है कि उन्होंने धीरे धीरे अपनी काव्य दृष्टि विकसित की है जिस पर कई तरह के प्रभाव हो सकते हैं किन्तु उसकी ज़मीन पूरी तरह से उनकी अपनी है | यह भी सच है कि उनकी ज़मीन उनकी खुद की बनायी हुई है तभी वे मिश्र जी की गज़लें बन पायी हैं | उन्होंने जो स्वयम देखा—भोगा और महसूस किया है वही उनकी ग़ज़लों में खुलकर आया है | इसीलिये उनकी ग़ज़लें दूसरों से बहुत कम मिलती—जुलती हैं | ग़ज़ल --प्रविधि की दृष्टि से उन्होंने ग़ज़ल में आने वाली इशारेबाजी का भी इस्तेमाल कम किया है और साफगोई यानी अभिधात्मक रास्ते को अधिक अपनाया है | उनकी शायरी अभिधा जैसी शब्द—शक्ति के प्रति अधिक आग्रही रही है जो उनकी शक्ति है तो सीमा भी है | बहरहाल मिश्र जी का ग़ज़ल संसार उनके अपने जीवनानुभवों , दृष्टिबन्ध और भाषा के रचाव का अपना संसार है
|
( 3 )
पिछली सदी के आठवें दशक में जब से दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल को उसकी अपनी पारंपरिक चौहद्दियों से बाहर निकालकर उसे जिन्दगी के बड़े और खुले मैदान में उतारा तब से एक जरूरी बात यह हुई कि उसे लोकप्रियता के साथ व्यापकता , विविधता और विस्तार करने का एक नया अवसर भी भविष्य के ग़ज़लकारों को सहज रूप से हासिल हो गया | वह एक तरह की घुटन और अँधेरे से बाहर निकलकर कविता की तरह ज़िंदगी के बाहरी और भीतरी यथार्थ को जिन्दादिली के साथ टोहने वाली विधा बन गयी | उसका कुछ ऐसा रूपांतरण हुआ कि वह दुष्यत कुमार के बाद अदम गौंडवी के हाथों में आकर धूप—तापों के मैदानों पर दूर दूर तक दौड़ लगाने लगी | तबसे ग़ज़लकारों ने उन मेहनत करने वालों की तरफ भी ध्यान दिया जो इंसानियत के सबसे बड़े पैरोकार होते हैं ,क्योंकि हर युग में ज़िंदगी में सबसे अधिक इंसानियत के साथ निम्न वर्ग ही ज़िंदा रहता आया है | इससे ऊपर के अन्य वर्ग जैसे जैसे पूंजी के संपर्क में आते हैं , खासतौर से सरप्लस पूंजी के संपर्क में वैसे वैसे उनकी इंसानियत कमजोर पड़ती जाती है और उनकी नयी सभ्यता में नयी संस्कृति का घनत्व कम होता जाता है | इसके बावजूद ज़िंदगी के सबसे निचले पायदान पर ज़िंदा रहने को निम्न वर्ग के श्रमशील लोग ही अभिशप्त होते हैं | जिनके जीवन में कविता का निवास होता हैं |जिनके दुःख—दर्दों और अभावों में शायरी को ढूंढा जा सकता है
| गज़लकार मिश्र भी दुष्यंत और अदम की तरह यह जानते हैं कि कविता में वास्तव में पीड़ित आदमी की पीर होनी चाहिए उसी से कविता में वज़न और गहराई आती है | वर्तमान में ही नहीं मध्यकाल में भी महान शायर मीर तकी मीर ने भी अपने समय में ज़िंदगी की इस सचाई को महसूस करते हुए कहा था ------
हमको शायर न कहो कि साहिब हमने
दर्दो गम कितने किये जमा तो दीवान किया |
इसी तरह से कलात्मकता के दाव—पेचों से घिरी हुई कला पर सवाल उठाते हुए मिश्र जी ने एक
शे’र में कहा ------- “ कविता में तेरी छंद-अलंकार बहुत हैं / कविता में आदमी की मगर पीर
कहाँ है |” वे समाज में व्याप्त सामाजिक—आर्थिक वर्ग—भेद को भी जान रहे हैं | तभी तो
कहते हैं कि एक तरफ तो एक छोटे से वर्ग के लिए सागर जितना जल मौजूद है जबकि दूसरी
तरफ दुनिया और देश का बहुत बड़ा वर्ग प्यास की गहन पीड़ा से गुजर रहा है ---------“ कहीं
छलकते हैं सागर तो कहीं प्यास ही प्यास / तेरे निजाम में इतनी बड़ी कमी क्यों है |” इस
तरह के सवाल वही उठा सकता है जिसे समाज के भीतर के वर्ग—विभाजन का पता है और जो
मौजूदा पूंजीवादी निजाम में गहरा होकर बढ़ता ही जा रहा है | आर्थिक भेद की गहरी होती इस
खाई को कवि कई जगहों पर कई तरह से चिह्नित करता हैं | जैसा कि पूर्व में भी कहा जा
चुका है कि मिश्र जी अपनी ज़िंदगी में आस्तिकता के भाववादी दर्शन से भी जुड़े हुए हैं इसके
बावजूद उनको गरीब—मेहनतकश की फ़िक्र अपनी शायरी में हमेशा से रही है | लेकिन उनकी
आस्तिकता , आस्था और विश्वास उनके अपने धर्म यानी किसी तरह की धार्मिक संकीर्णता
तक ही सीमित नहीं रख पाते | इस मामले में वे संकीर्ण और दकियानूस नहीं हैं | उनकी
आस्तिकता की उदारता ने ही भेद---बुद्धि को समाप्त कर उनको पूरी मनुष्यता से जोड़ दिया है
| उनकी आस्तिकता में खुदा और अल्लाह भी शामिल हैं जिनका वे अपनी भाषा और मुहावरे में
बेझिझक प्रयोग करते हैं | उनके इसी आस्तिकता के दर्शन की वजह से उनके यहाँ मुक़द्दर
और नियति जैसी धारणाएं अब भी बची हुई हैं | जबकि यह मुकद्दर का दर्शन ही है जो दलितों
और लाचारों को उसके पुराने जाल से बाहर नहीं निकलने देता और यही दर्शन भ्रष्टाचारियों और
अनाचारियों की रक्षा भी करता है | जैसे अँधेरे को मुक़द्दर मानते हुए वे कहते हैं --------
अन्धेरा जब मुक़द्दर बनके घर में बैठ जाता है
मेरे कमरे का रोशनदान तब भी जगमगाता है
अच्छी बात यह है कि यहाँ अँधेरे की काट करने वाला भौतिकवादी रोशनदान भी मौजूद है जो
अँधेरे की अहमियत को कम कर देता है | इस तरह से कवि का भरोसा रोशनी के आशावाद को
बनाए रखता है | डी एम मिश्र की खूबी यह रही है कि वे अपवाद छोड़कर ग़ज़ल के व्याकरण का पूरी तरह से निर्वाह करते हुए यह कोशिश करते हैं कि उनके अशआर में उनके समय का यथार्थ आने से नहीं रह जाए | उन्होंने एक जगह पर लिखा भी है ------ “ अनेक शे’र मेरे जाया हो गए फिर भी / रदीफ़ काफिया बहरो वजन निभाता हूँ |’ ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमें गज़लकार अपनी ग़ज़लके स्वरुप के बारे में किसी न किसी शे’र में खुद बताता चलता है | वे बतलाते हैं कि इस युग में ग़ज़लकारों को मिट्टी की महक वाली ग़ज़ल कहने पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए | वे एक बिम्ब बनाते हैं ------“ ग़ज़ल ऐसी कहो कि मिट्टी की महक आये / लगे गेंहूँ में जब बाली तो
कंगन की खनक आये |” इसी तरह से वे मिट्टी से अपना नाता जोड़ते हुए यह मानते हैं कि
जब हमारा मिट्टी से रिश्ता जुड़ता है तो पानी से भी जुड़ जाता है ------“ छू लिया मिट्टी तो
थोड़ा हाथ मैला हो गया / पर मेरा पानी से रिश्ता और गहरा हो गया | “ ये ग़ज़ल की दुनिया
के लिए कुछ अलग तरह की बातें हैं जो मिश्र जी की ग़ज़ल को दूसरों से अलग करती हैं | यहाँ
पर कहन और कथ्य दोनों की जुगलबंदी कुछ इस तरह की है कि दोनों में कोई एक—दूसरे से
बढकर नहीं है | इसी तरह से ग़ज़ल के माध्यम से खुद कवि के बारे में भी पाठक बहुत कुछ
जान लेता है | बीच बीच में वह अपने बारे में भी कुछ न कुछ कहता चलता है | इस तरह से
ग़ज़ल में वैयक्तिकता जितनी खुलकर आती है उतनी शायद ही अन्य विधा में आ पाती हो |
मसलन मिश्र जी का यह कहना ----“खुली किताब की मानिंद ज़िंदगी मेरी / कोई पर्दा नहीं है
कुछ नहीं छुपाता हूँ |” एक श्रोता—पाठक को सुनने और पढने में यह बात बेहद सुकूनदेह लगती
है किन्तु व्यवहार में ऐसा बहुत कम संभव हो पाता है | ऐसा प्रतीत होता है कि इस बहाने से
वह दूसरों को भी यह परामर्श देने से नहीं चूकते कि वे भी अपनी ज़िंदगी को खुली किताब के
मानिंद रखें लेकिन ऐसा निभ पाना बहुत मुश्किल होता है | हम तो यह देख रहे हैं कि जैसे जैसे
सभ्यता आगे बढ़ रही है वैसे वैसे आदमी के भीतर छिपाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है | इसकी
वजह है कुछ लोगों के पास अनकमाई दौलत का बेतहाशा बढ़ते जाना , जिसे वह सबसे
अधिक छिपाने की कोशिश करता है जो उसकी ज़िंदगी को एक बंद किताब में तब्दील करती
जाती है | फिर भी इस आकांक्षा का स्वागत करना चाहिए कि लोगों की ज़िंदगी एक खुली
किताब की तरह से हो | उसमें पारदर्शिता हो , इसके बिना लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत नहीं हो
सकती | इस तरह से वे अपने वैयक्तिक पक्ष को सामने रखते हैं और किसी जीवन—तथ्य
को सीधे—सपाट ढंग से कहने की कला ही उनकी वैयक्तिकता का विशिष्ट रूप निर्मित करती
है | मिश्र जी ने अपनी एक बातचीत में मुझे यह बतलाया कि वे ‘क्या कहा जाय’ की जगह ‘
कैसे कहा जाए’ का ध्यान ज़्यादा रखते हैं | कहना न होगा कि ‘ कैसे कहा जाए’ पर जोर देने
से कविता के कथ्य में एकरूपता के खतरे से बच पाना बहुत मुश्किल होता है \ इससे कथ्य में
दुहराव पैदा होता है | मिश्र जी के यहाँ ऐसे अशआर मोजूद हैं जिनकी अंतर्वस्तु में दुहराव
मिलता है जिसे वे ‘ कैसे कहा जाए’ के आधार पर ही दूसरों से अलग करते हैं लेकिन शायरी
के मेंयार के विस्तार और उदात्तता के लिए यह प्रवृत्ति अवरोधक का ही नहीं रूपवाद का भी
ख़तरा पैदा करती है | जहां वे इस प्रवृत्ति से अलग हटकर विशुद्ध रूप से अपनी बात कहते हैं
वहीं वे डी एम मिश्र होते हैं | सच तो यह है कि कविता में ‘क्या कहा जाए’ और ‘कैसे कहा
जाए’ का जब तक संतुलन न हो और इन दोनों का द्वंद्वात्मक रिश्ता कायम न हो तब तक
कविता में मौलिकता का वह तेज़ और ओज नहीं आ पाता जो उसमें विलक्षणता पैदा करता है
| कविता में कवि की शख्सियत भी तभी बनती है जब वह ज़िंदगी की शख्सियतों यानी
इंसानियत के पक्ष को उद्घाटित करने में अपनी शक्ति को लगाता है | शायरी माना कि कला है
किन्तु यह भी तथ्य है कि वह ज़िन्दगी की कला है | इसकी व्यंजना उनके इस शे’र में देखिये



शख्सियत का मिटाने चले हो निशाँ
ढूंढते हो मगर आदमी की मुहर
इसका मतलब है कि शख्सियत आदमी की मुहर के बिना नहीं बन सकती और आदमी की मुहर
का मतलब है आदमी की ज़िन्दगी | वस्तुतः आज जो भी सुख—चैन का एक अलग—थलग
बेपरवाह जीवन जी रहा है वह बहुत छिछले और उथले पानी का नागरिक है , अफ़सोस इस
बात का है कि उसे खुद यह पता भी नहीं है | दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल भी अपने समय की
लोकतांत्रिक जीवन-प्रणाली में आ रहे संकट से उत्पन्न पीड़ा को व्यक्त करने के लिए ग़ज़ल
जैसे लोकप्रिय माध्यम को लेकर आये थे | उनको भी ----हो गयी है पीर पर्वत—सी---- स्वीकार
करना पडा था |लेकिन दुष्यंत के समय की पीर आज घटने के बजाय पहले से और बढ़ गयी है
| देश के लोकतंत्र पर आज आपातकाल से भी गहरा संकट आ चुका है | इस बात को लेकर
मिश्र जी की गज़लें बहुत कुछ कहती हैं और बेझिझक कहती हैं | एक ग़ज़ल का तो मतला ही
उन्होंने यह बनाया ------“ अब ये गज़लें मिजाज़ बदलेंगी / बेईमानों का राज बदलेंगी |” मेरे
हिसाब से मिश्र जी को शायरी पर कुछ ज्यादा ही भरोसा है कि वह राज को भी बदल सकती है
| मिजाज़ बदलने तक तो ठीक है , राज बदलने की बात में यहाँ व्यंजना सिर्फ यही है कि सोच

बदल जाने से व्यक्ति का व्यवहार भी बदल सकता है | ग़ज़ल का ऐसा राजनीतिक प्रयोजन
ज़ाहिर करने वाले कम ही गज़लकार होंगे | यही बात है जो अदम गोंडवी से उनके यहाँ सीधे
सीधे चली आयी है | बहरहाल , मिश्र जी ने ग़ज़ल को अपनी विकास-प्रक्रिया के चलते वैयक्तिक
से सामाजिक—राजनीतिक बनाया है | यह बात उनके अभी तक के अंतिम दो संग्रहों ---“ वो
पता ढूँढ़ें हमारा “ और “ लेकिन सवाल टेढा है “ की ग़ज़लों में खासतौर से उभर कर आयी है |
इससे पहले के संग्रह ‘ आईना—दर—आईना’ की ग़ज़लों में भी यह प्रवृत्ति कहीं कहीं नज़र आती
है जैसे -----
धनवान देश के मेरे कंगाल दोस्तों
दौलत है मगर कोठियों में देखिये उसे |
‘आईना—दर-आईना’ में ही संकलित ग़ज़ल के एक अन्य शे’र में वे मौजूदा लोकतंत्र की सचाई
को बतलाते हुए कहते हैं ------‘ इसी को दोस्तों ज़म्हूरिय्त कहा जाता / चोर उचक्के भी देश के
वजीर होते हैं |” अपरिपक्व और पिछले युगों की सामन्ती प्रवृत्तियों के उभार वाले लोकतन्त्रों में
ऐसी स्थितियों से गुजरना पड़ता है जिनमें जम्हूरियत आने में समय लगता है | फिर भी कवि
अपने देश की जम्हूरियत के बारे में चिंता व्यक्त करता है यह भविष्य के लिए शुभ संकेत है |
इस तरह के राजनीतिक सुझाव , प्रस्ताव और आलोचनाएं उनके अशआर के केंद्र में रहे हैं जो
उनकी राजनीतिक समझ , सम्बद्धता और जागरूकता को व्यक्त करते हैं | मध्यवर्गीय कवि की संवेदना का सबसे बड़ा संकट होता है कि वह महसूस करने पर कम ,सोचने पर अधिक निर्भर रहती है | इसकी वजह है अनुभव और संवेदना के बीच आने वाला अंतराल | यदि वह हमारे अनुभव जगत से दूर है तो वह टिकाऊ नहीं होती लेकिन मिश्र जी का प्रयास रहता है कि वह उनके अपने अनुभव संसार के आसपास ही रहे | ऐसा लगे कि उसमें वे अकेले ही नहीं , दूसरे लोग भी शामिल हैं | ग़ज़ल में एक बात और होती है कि अंदाज़े बयाँ पैदा करने के लिए उसमें विरोधसूचक चौंकाने की एक ख़ास तरह की प्रवृत्ति घर कर जाती है इसलिए उसकी उक्तियों में एक ख़ास तरह की वक्रता पैदा करने का प्रयास किया जाता है | अतः अच्छी बात है कि मिश्र जी के यहाँ इस प्रवृत्ति से हमेशा बचने की कोशिश की गयी है जिससे उनके अशआर बहुत सीधे और सादगी लिए हुए होते हैं | जो कुछ भी कहना है सीधे सीधे कहना है यह उनकी ग़ज़ल-रचना की ख़ास प्रवृत्ति है जो पाठक के बहुत अनुकूल पड़ती है |
मसलन ----
खिली धूप से सीखा मैंने खुले गगन में जीना
पकी फसल में देखा मैंने खुशबूदार पसीना

यह कवि की सौन्दर्यानुभूति और सौन्दर्य—दृष्टि को व्यक्त करने वाला शे’र है और यह उनकी
अपनी ज़मीन का भी है | इस ज़मीन पर जो कुछ वे कहते हैं वह उनकी सौन्दर्यानुभूति का
हिस्सा बनकर आता है जो दूसरों से बहुत अलग होता है | मसलन ऐसा भी वे ही कह सकते थे-


“ बोझ धान का लेकर वो जब हौले हौले चलती है / धान की बाली कान की बाली दोनों

संग संग बजती हैं | “ यहाँ किसान जीवन के श्रम—सौन्दर्य को वे जिस तरह से ग़ज़ल में लेकर
आये हैं उसने उनकी ग़ज़ल को एक नयी तरह की विलक्षणता प्रदान की है |
( 4 )
जैसा कि हम पहले ही कह आये हैं कि अदम की तरह से मिश्र जी भी ग़ज़ल को गाँव में ले
गए हैं जिससे उन्होंने ,जैसाकि वे स्वयम कहते भी हैं , शहर आकर भी गाँव से अपना नाता
नहीं तोड़ा है |इस वजह से उनका अनुभव - संसार भी मध्यवर्गीय संवेदनाओं तक सीमित होने
से कुछ ही सही , बच गया है |उनकी कविता में ज़िंदगी के फैलाव का जो दायरा नज़र आता है
उसकी बड़ी वजह उनका शहर में रहने के बावजूद अपने गाँव से भी एक रिश्ता बनाए रखना है
| सच तो यह है कि यह रिश्ता जितना मजबूत होगा , ग़ज़ल की विश्वसनीयता भी उतनी ही
बढ़ती जायगी | यह उनकी विराट ग्रामीण जीवन से सम्बद्धता ही है कि वे निचले मेहनतकश
वर्ग तक के दुःख—दर्दों के प्रति कम से कम सहानुभूति तो रखे हुए हैं जबकि शहरी मध्यवर्ग
की ज़िंदगी जीने वाले शायरों में संकुचित होती संवेदना का संकट पैदा हो गया है | यह खुशी की
बात है कि मिश्र जी ग़ज़ल की अपनी धरती की उस ठोस सतह से जुडे रहने का संकल्प
लेकर चले हैं जहां सामान्य जन के जीवन की दुखद सचाइयां देखने को मिलती हैं |वे अपने एक
शे’र में बड़ी बेबाकी और खुले मन से कहते हैं------
सितारों के नगर में चाहता तो मैं भी बस जाता
पर अपने गाँव से नाता कभी तोड़ा नहीं मैंने |
गाँव की ज़िंदगी का हमेशा से एक अर्थ दुःख—दर्दों की ज़िंदगी से जुडा रहा है जिसकी पीठ पर
हमेशा से सभ्यता लदी रहती आयी है | इसीलिये आज का आदमी गाँव की ज़िंदगी से दूर उसे
छोड़कर शहर की तरफ भागता है | यही नाता है जो कविता को बचाए रखने की संभावनाएं बनाता है |यहाँ सितारों के नगर की व्यंजना में उनका अंदाजे बयाँ भी आ गया है जहां तृष्णाजन्य आपाधापी और गलाकाट असंतोष की इस महत्त्वाकांक्षा के अन्धकार से घिरी दुनिया में कवि में संतोष का जो उत्फुल्ल भाव दिखाई देता है वह भी निरंतर धन –पिशाच बनती जाती सितारों के नगर वाली इस कुटिल और क्रूर दुनिया में एक जीवन—मूल्य की तरह लगता है | शायर जानता है कि इस समय के संसार के मानवीय रिश्ते व्यक्ति के ज़मीर को साबुत नहीं रहने देते |आज सबसे मुश्किल ही यही है कि व्यक्ति अपनी स्वाधीनता और ज़मीर को बेचकर ही बड़ा दिखने का प्रयत्न करता है | कहना न होगा कि अपने ईमान को बचा पाना इस उत्तरआधुनिक युग में जितना मुश्किल है उतना पहले कभी नहीं था | सच तो यह है कि सुविधाओं और सहूलियतें जिनके पास जितनी हैं उतना ही उनका ईमान और ज़मीर सिकुड़ा हुआ है |अपने कई शे.रों में कवि डी एम मिश्र ने साफगोई से स्वीकार किया है कि मुझे पीछे रहना मंजूर था लेकिन अपने ज़मीर को बेचना नहीं | यही तो है मनुष्यता की ताकत जो उसके भीतर के मनुष्य को बचाती है और यही मनुष्यता है जिसके बिना सच्ची कविता लिख पाना संभव नहीं | अदम गौंडवी ने अपनी एक ग़ज़ल में सही कहा था कि -----
कोठियों से मुल्क के मैयार को मत आंकिये
अस्ल हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है |
इसी असली हिन्दुस्तान के चेहरे को डी एम मिश्र की ग़ज़ल भी अपने सहज अंदाज़ में दिखाने
की कोशिश करती है | यद्यपि वह भी मध्यवर्गीय सीमाओं का पूरी तरह से अतिक्रमण नहीं कर
पाती | फिर भी उनके यहाँ एक कोशिश नज़र आती है |दरअसल मौजूदा मध्यवर्ग की दिक्कत
यह है कि वह जितना सोचकर और पढ़कर लिखता है उतना महसूस करके नहीं लिख पात़ा
|महसूस करने के लिए जिस व्यापक और निम्नगामी क्रियाशील जीवन के अनुभव –संसार और
जीवन—दृष्टि की जरूरत होती है उससे वह हटता और कटता गया है | आज उसका
अनुभव—संसार भी मध्यवर्गीय है और जीवन—दृष्टि भी |वह कोशिश भी करता है तो वैसा
आत्मसंघर्ष नहीं कर पाता , जैसा हमारे यहाँ बड़े रचनाकारों ने किया है |कबीर , तुलसी , मीरा,
, प्रेमचन्द , निराला , मुक्तिबोध आदि के जीवन की कहानियां तो हम खूब कहते हैं लेकिन
उनके रास्ते पर चल पाना आज कितना मुश्किल हो गया है | दिक्कत की बात यह है कि आज
का कवि जैसे जैसे शहरी सुविधाओं का अभ्यस्त हो रहा है वैसे वैसे धरती की सतह के अनुभवों
से भी दूर हो रहा है |यह अच्छी बात है कि डी एम मिश्र अवध जनपद के सुल्तानपुर जैसे
अर्ध—शहरी माहौल में रहकर खुद के शायर को एक सीमा तक बचाए हुए हैं | कविता करना
इसीलिये तो हमारे यहाँ जीवन—साधना करना माना गया है | किसी भी कवि की कविता से
यह जाना जा सकता है कि उसने कितनी बड़ी जीवन—साधना की है |इस मामले में जब डी एम
मिश्र की ग़ज़ल—रचना को उसके पास जाकर देखते हैं तो पता चलता है कि ज़िंदगी में
असुविधाएं और कठिन –मारक परेशानियां होने के बावजूद वह कभी घबराया नहीं था | देश में
आज कौन लोग हैं जो इस स्थिति में हैं -----
धूप थी , लंबा सफ़र था , दूर तक साया न था
सामने चट्टान थी फिर भी वो घबराया न था |
क्या यह सच नहीं है कि आज हर ईमानदार आदमी के लिए ज़िंदगी ऐसी ही अवरोधों से भरी है
|यहाँ इस शे.र में एक वातावरण है ,प्रतीक रूप में कहा जाय तो प्रकृति के साथ सामाजिक
वातावरण का सबूत भी है |आज एक ईमानदार आदमी के लिए ऐसा ही है जिसमें
जीवन—यात्रा आसान नहीं रही |यही परीक्षा की घड़ी है लेकिन ऐसी घड़ी में भी एक वर्ग है जो
खडा रहता है |कोई दशरथ मांझी है जो पहाड़ को काटकर रास्ता बना लेता है | इतिहास में कोई
भगत सिंह है | कोई चंद्रशेखर—अश्फाकुल्लाखा है | इस तरह के शे.रों की खासियत यही है कि
ये अपने अर्थ में काल को लांघ जाते हैं |इसी में से एक दूसरा शे.र निकलता है कि वह वर्ग
कौनसा है और वह कहाँ है ? किसकी तरफ कवि का इशारा है तो पता चलता है कि वह
झौंपडियों में रहने वाला है जिसके पक्ष में कवि ने अपनी शायरी को खडा किया है | यही है
शायर का अपने गाँव से नाता | जहां वह लिखता है ----
झौंपडी गिरती थी उसकी फिर उठा लेता था वह
कौन—सा तूफ़ान था जो उससे टकराया न था |
उत्तर आधुनिक विचारक मिशेल फूको ने ताकत की अवधारणा और व्यवहार के बारे में जिस
रहस्य का उद्घाटन किया है उसे जागरूक पाठक जानते हैं |यह सच है कि आज भी यह संसार
मानवीय न्याय की अपेक्षा “ताकत के न्याय “ से ही ज्यादा चल रहा है |इसी “न्याय” की तरफ
मिश्र जी का एक शे’र जिस व्यंजना में इशारा करता है “ वह विचारणीय है--------
उसकी ताकत के आगे मेरी क्या बिसात
एक ज़ालिम को सरकार कहना पडा |
इस शे’र की खासियत इस बात में है कि यह जितना पोलोटिकल है उतना ही सामाजिक भी और उतना ही पितृसत्तात्मकत़ा पर व्यंग्य कसने वाला भी | कहना न होगा कि जहां भी दुनिया में जालिमों की अन्यायपूर्ण सत्ता है वहाँ इस शे’र की अर्थवत्ता है | यह एक साधारण नागरिक की विवशता भी है कि उसके सामने कोई चारा नहीं |किसी शे’र की खासियत इस बात में होती है कि वह कितनी दूरी तक अपनी सार्थकता व्यक्त कर पात़ा है | यह डी एम मिश्र के यहाँ है यह
बात निस्संकोच कही जा सकती है |इस तरह के अशआर से उनके नज़रिए का पता भी चलता है
और उनकी पक्षधरता का भी | आज के व्यक्ति का चरित्र भी इन ग़ज़लों से पहचाना जा सकता
है |आज जिस तरह के बदलाव आये हैं और लोगों के रिश्तों में ठंडापन आया है , शायर कहता
है कि उनसे शहर रहने लायक नहीं रह गए हैं | शहर धन—वैभव से जरूर समृद्ध हुए हैं लेकिन
समरसता और सम्बन्धों के स्तर पर सुकूनदेह नहीं रह गए हैं ---
न खुशबू गुलों में न रंगे—हिना वो
कोई गुलिश्तां में जहर बो गया है |
सवाल यह है कि यहाँ शहर का शत्रु वो कोई कौन है जो गुलिश्तां में जहर बोने का काम करता
है उसके चेहरे की शिनाख्त करना भी जरूरी है तभी कविता की एक मुक्कमल तस्वीर बनती है
| फिर शहर में ऐसे अल्पमत लोग भी तो हैं जो उसमें अमृत लाने के लिए जद्दोजहद और इस
व्यवस्था को बदलने के लिए सोचते—विचारते तथा संघर्ष भी करते हैं लेकिन सत्ताधारी शक्तियों
के सामने वे दिखाई नहीं देते | यहाँ शहर को उसकी द्वंद्वात्मकता में समझने की जरूरत है
क्योंकि शहर एक ही तरह का नहीं है | मिश्र जी के यहाँ भाषा की सरलता और तरलता दोनों होने के कारण भाषा में कहीं गत्यवरोध व अस्पष्टता नहीं है |जिस तरह से अदम ने ग़ज़ल की भाषा और मुहावरे को आज की मध्यवर्गीय अभिजात हिंदी से ज्यादा हिन्दुस्तानी के नज़दीक रखा था , उसी तरह से मिश्र जी भी रखते हैं | एक तरफ इसमें जहां उनकी पहले से चली आती हुई अनुभूतियों का विस्तार है वहीं दूसरी ओर यहाँ आकर उनके अशआर नए नए जीवन- क्षेत्रों का अन्वेषण भी करते हैं | इस अन्वेषण की गवाही खासतौर से उनके वे रदीफ़ देते हैं जो इस समय के अलावा पहले नहीं आ सकते थे | जब सत्ता ने पहली बार अपनी विरोधी राजनीति के नायकों की मूर्तियों पर बुलडोजर चलाया था तभी उसी जीवनानुभव से मिश्र जी ने एक नयी रदीफ़ निकाल ली थी ---बुलडोज़र चला देगा | इसी तरह से जब कोरानावायरस जैसी वैश्विक महामारी के संकट से विश्व के साथ हमारा देश भी गुज़रा तो उनको एक नया रदीफ़ मिला ---लाकडाउन हो गया | इस तरह की तात्कालिकता भी उनके यहाँ मिलती है | जिस तरह के मतले में वे रदीफ़ व काफिये बांधते हैं उनका नवीन ख्यालों के साथ मजमून की बारीकियों तक जाने की कुशलता भी वे अक्सर दिखलाते हैं |अंत में उन्ही के शब्दों में उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल की इस हिदायत को ध्यान में रखना जरूरी है-----
दूसरों में तलाशता फिरता
आदमी खुद की भी कमी जाने |
कहना न होगा कि आज के मध्यवर्गीय रचनाकार के पास जीवन के वे मूल्यसंपन्न किन्तु
मुश्किल अनुभव नहीं के बराबर ही बचे हैं | उसका सबसे बड़ा संकट ही यह है कि वह
स्वयम अपने मध्यवर्गीय जीवन की सीमाओं से बाहर नहीं निकल पात़ा | इसलिए जब कोई
शायर थोड़ा सा भी निम्न मेहनतकश की ज़िंदगी की तरफ झांकता है तो जैसे घनी तपन में
शीतल बयार का एक झोंका-सा महसूस होता है | दरअसल आज कविता को सच्चे अर्थों में
जनपक्षीय बना देना हर ऐरे गैरे रचनाकार का काम भी नहीं रह गया है | यह कहना मुनासिब
होगा कि डी एम मिश्र के यहाँ कोशिश रहती है कि व्यक्ति—सोच में द्वंद्वात्मकता रहे |वैसे
ग़ज़ल अपने आप में अंतर्विरोधों को ज़ाहिर करने की कला है | सबसे पहले वह अपने समय
की ज़िन्दगी और उसके रिश्तों के विरोधाभासों पर उंगली रखती है जिससे एक तरह का
चमत्कार- सा पैदा हो जाता है | लेकिन यह चमत्कार तब तक बड़ा अर्थ पैदा नहीं कर पात़ा
जब तक यह उन अंतर्विरोधों को ज़ाहिर न करे जो सामाजिक स्तर पर अभिशाप बने रहते हैं |
सुख—दुःख, हर्ष—विषाद- गर्म—ठंडा , अन्धेरा—उजाला आदि प्रकृति व जीवन के सहज और जरूरी विरोधाभास हैं लेकिन ये हमारी ज़िंदगी में आकर गंभीर अंतर्विरोध भी पैदा करते हैं यह उसी रचनाकार को मालूम हो पात़ा है जिसके पास जीवन की जटिलताओं , कुटिलताओं और
सौन्दर्यानुभूतियों को समझने की गहरी , व्यापक और खुली अंतर्दृष्टि हो | यही बात है जो
उनसे इस तरह के नए सौन्दर्यबोध वाले अशआर निकलवा लेती है ---- “ किसी अप्सरा इन्द्र्परी
में बात कहाँ /यहाँ बात जो अपनी रामदुलारी में | “ इस शे’र का रिश्ता इस ग़ज़ल के उस
मतले वाले शे’र से सीधा—सीधा बनता है जहां वह यह स्थापना करता है कि इस समय के अनेक गज़लकार अपनी फनकारी दिखाने में लगे हुए हैं जबकि फनकारी के साथ जरूरत उस
श्रम—संस्कृति से उत्पन्न सौन्दर्यबोध की है और उससे एकाकार होने की है जिसकी तरफ महान
कथाकार प्रेमचन्द बहुत पहले इशारा कर चुके हैं | यहाँ भी गज़लकार अपने समय के पाठक और
रचनाकार दोनों का ध्यान इसी तरफ आकर्षित कर क्यारी और खुरपे के बिम्ब से इस अछूते
जीवन क्षेत्र की सौन्दर्य—संभावनाओं को दिखलाने का साहस करता है | इस तरह के मतले कुछ
अलग तरह के होते हैं और रवायत के अभ्यस्त लोगों को ये झटका भी दे सकते हैं | वे लिखते
हैं ---- “गज़लकार सब लगे हुए फनकारी में / पर हम लेकर खुरपी बैठे क्यारी मे|”
कवि के अपने रूपक में ही कहा जाय तो मिश्र जी की ये गज़लें “ प्यार के सरोवर में आग “ की
तरह हैं जिनमें प्यार और आग दोनों का अनूठा मेल कराया गया है | कवि के ही शब्दों में-----
प्राणों में ताप भर दे वो राग लिख रहा हूँ
मैं प्यार के सरोवर में आग लिख रहा हूँ |
आशा है पाठकों को उनकी अब तक की लगभग पांच सौ ग़ज़लों में से चयनित गजलों का यह
संकलन पसंद आयगा |
जीवन सिंह
1 / 1 4 अरावली विहार
अलवर 3 0 1 0 0 1
राजस्थान