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भूमिका / राजेन्द्र नाथ रहबर / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'

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डॉ. प्रमिल चंद्र सरीन अंजान मैदाने-शायरी के पुराने शहसवार हैं। उनसे मेरी पहली भेंट 1956 ई. में शिमला में हुई थी। उस समय वह एस.डी कॉलेज शिमला में विद्यार्थी थे और मैं अकाउंटेंट जनरल, पंजाब, शिमला के ऑफिस में कार्यरत था। अंजान उस समय भी शायरी में रुचि रखते थे। और थोड़ा बहुत लिखते भी रहते थे। मेरे संपर्क में आने के बाद अतिशे-शौक़ को और भी हवा मिली। शिमला में कभी माल रोड पर और कभी उनके होम्योपैथिक दवाखाना पर उनसे मुलाक़ातें होती रहतीं। अंजान के पिता डॉ.विश्वनाथ सरीन का होम्योपैथिक दवाखाना लोअर बाज़ार शिमला में था जहां 'अंजान' अपने पिता का हाथ बंटाते थे। अंजान के पिता केवल गर्मियों के महीनों में शिमला में रहते थे। सर्दियां शुरू होते ही वह परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ देहली चले जाते थे जहां उनका एक और दवाखाना था। सर्दियों में अंजान शिमला में ही रहते थे और पिता की ग़ैर-मौजूदगी में शिमला वाला दवाखाना अपने तौर पर चलाते थे। दवाखाने के साथ ही एक अलग पोर्शन में उनकी रिहाइश थी। मौसमे-सर्मा में उनके दवाखाना पर हमारी मुलाक़ातें होती रहतीं थीं और शेरो-शायरी का ज़िक्र होता रहता था और अंजान की शायरी परवान चढ़ती रही। श्री सुरेश चंद्र शौक़ साहिब अंजान के सहपाठी थे और अंजान के ज़रिया ही शौक़ 1958 ई. के क़रीब मेरे संपर्क में आये।

अंजान के पिता डॉ. विश्वनाथ एक नेक दिल इंसान थे। मगर उन्हें अंजान का उर्दू शायरी में रुचि रखना नापसन्द था। आगे चलकर यही बात अंजान के जीवन में बड़ी उथल पुथल का सबब बनी। एक बार हालात ने ऐसा पलटा खाया कि उन्हें घर से निकाल दिया गया और उन्हें लगभग छः महीने मेरे यहां क़याम करना पड़ा। इससे उनके ज़ौके-शायरी को और भी हवा मिली। उन दिनों उन्होंने बहुत कलाम कहा जो इस संग्रह में शामिल है। फिर शिमला से अंजान साहब का आबो-दाना उठ गया। अपनी भावी पत्नी स्व. श्रीमति निर्मल सरीन के इशारे से या किसी और कारण से उन्होंने शिमला का भली-भाँति चलता दवाखाना छोड़ दिया। वक़्त की तेज़ धारा उन्हें अपने साथ बहाकर देहली ले गई। उनका ये शेर शायद उसी समय के उनके दिल की कैफ़ियत बयान करता है।

  किस जगह मिल पायेगा दिल को सुकूं
  किस जगह जाऊं मैं शिमला छोड़ कर


अंजान दिल्ली चले गये और बेला रोड स्थित लद्दाख बौद्ध विहार में मैनेजर के तौर पर काम करने लगे। होम्योपैथी की दवाएं मरीजों को देने का सिलसिला जारी रहा लेकिन दवाएं राहे-मौला ही देने का मन बना लिया और यह नेक काम आज भी जारी है, इससे उनके दिल को सुकून मिलता है। शादी के बाद वह पिता से अलग रहने लगे थे, उन्हें पैतृक जायदाद से महरूम कर दिया गया था। इसलिए भाई के साथ दिल्ली की अदालत में मुक़द्दमा चला और लम्बी मुद्दत तक चला। निजी मसाइल के कारण शायरी का दामन भी उन के हाथ से छूट गया। बहुत सालों तक शायरी से किनारा-कशी इख़्तियार किये रहे। आखिर अंजान के कवि ने एक हक़ीर सी रक़म के बदले भाई से समझौता कर लिया और मुक़द्दमा और जायदाद से दस्त बरदार हो गये। मुझ से मुलाक़ातों का सिलसिला खत्म हो गया था। मेरे बड़े भाई श्री ईश्वरदत्त अंजुम मोती नगर दिल्ली में रहते हैं। मैं जब भी उनसे मिलने दिल्ली आता तो अंजान से भी मुलाक़ात रहती। एक बार वह मुझे मिलने पठानकोट भी तशरीफ़ लाये थे। 1995 ई. में मेरा बेटा दर्पण पठानकोटी दिल्ली में रिहाइश पज़ीर हुआ तो मेरा दिल्ली आना जाना बढ़ गया और अंजान से मिलने जुलने का सिलसिला फिर से शुरू हो गया और आज भी जारी है। श्री शामसुन्दर नन्दा नूर अंजान के अडोस-पड़ोस के इलाके में रहते हैं। मैंने उनके साथ भी अंजान साहिब का परिचय करा दिया। इस प्रकार अंजान के अंदर शायरी की सोई हुई हिस दोबारा बेदार हुई और यह काव्य संग्रह उसी की देन है।

मैंने अंजान के प्रस्तावित काव्य संग्रह का मुसव्वदा देखा तो पता चला कि उन्होंने ग़ज़लों के अतिरिक्त नज़्में भी कही हैं। दोनों विधाओं में वह यकसां दस्तरस रखते हैं बल्कि नज़्मों में वह अपनी निजी बढ़त बनाए हुए हैं। उनकी नज़्में पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है जैसे सब कुछ निगाहों के सामने हो रहा है। इससे ज़ाहिर होता है कि उन्हें मंज़रकशी में कमाल हासिल है। नज़्म 'वो शाम' को पढ़ते हुए नज़्म का पूरा मंज़र-नामा एक दृश्य की तरह आंखों के सामने फिर आ जाता है। इस नज़्म के चंद शेर देखें:-

बाग़ के इस हसीन गोशे में
सब्ज़ पेड़ों के नर्म साये में
धुंधला धुंधला हसीन साया था
रौशनी पर हिजाब छाया था
प्यार महका था इन फज़ाओं में
बूए गुल जिस तरह हवाओं में
नशाए बेख़ुदी से हो के चूर
हो के दुनिया के शेरो-शर से दूर
हम यहां एक शाम बैठे थे
पी के उल्फ़त का जाम बैठे थे
फूल बरसे थे शाख़सारों से
बूए गुल जिस तरह बहारों से
पंछी डालों पे चहचहाते थे
प्यार के मीठे गीत गाते थे
मौसमे-गुल था ताज़गी थी यहां
प्यार था हम थे ज़िन्दगी थी यहां।


नज़्म कहते वक़्त अंजान ख़याल का सिरा हाथ से नहीं जाने देते। उनकी दूसरी नज़्मों के शीर्षक इंतज़ार, एक याद, हम से ( ये अंग्रेज़ी विधा में लिखा गया सॉनेट है), मुज़तरिब तमन्ना , सलाम हैं।

काव्य संग्रह में ग़ज़लों की संख्या ज़ियादा है। ऐसा होना एक क़ुदरती बात है क्योंकि ग़ज़लों का जादू हमेशा ही सर चढ़ कर बोलता रहा है। हर दौर में शायरों ने शायरी की दूसरी विधाओं जैसे रुबाई, कतअ, नज़्म, दोहा, मुखम्मस, मुसद्दस, मर्सिया आदि के मुक़ाबिल में ग़ज़लों को प्राथमिकता दी। ग़ज़ल एशिया की सब से लोकप्रिय विधा है। ग़ज़ल ही वो विधा है जिसके माथे पर मीर तक़ी मीर ने टीका लगाया। मिर्ज़ा ग़ालिब ने भी ग़ज़ल ही में अपनी तबीयत के जौहर दिखाये और ग़ज़ल की मांग सितारों से भर दी। मेरे उस्ताद साहिब पं. रतन पंडोरवी का फरमान है-

इस हक़ीक़त से किसी को नहीं इंकार 'रतन'
इश्क़ का हुस्न निखरता है ग़ज़ल में आ कर

ग़ज़ल को शायरी की आबरू कहा जाता है। ग़ज़ल अरबी भाषा का शब्द है जिस का अर्थ है महिलाओं के हुस्नो-जमाल की बातें करना। इसी कारण हमारे पुराने शायर ग़ज़ल में इश्किया मज़ामीन ही बाँधते थे और कारोबारे-इश्क़ के लिए ग़ज़ल का इस्तेमाल करते थे। किन्तु समय के साथ ग़ज़ल अपनी असलियत पर कायम नहीं रही और इसमें हर प्रकार के मज़ामीन जैसे कि धार्मिक, सामाजिक, मज़ाहिया मज़ामीन, सियासी मज़ामीन, शराब के मज़ामीन, सूफ़ी-इज़म के मज़ामीन, देश प्रेम के मज़ामीन राह पा गये। पिछले कुछ दशकों में ग़ज़ल ने बेपनाह रंग अपने अंदर समोए हैं।

अंजान के कलाम में भी इन मज़ामीन की रंगा रंगी मिल जायेगी। अंजान को देश प्रेम के विषय पर शेर कहने का सौभग्य भी प्राप्त हुआ है, लिखते हैं-

शहादत याद रहती है हमेशा उसकी दुनिया को
वतन के वास्ते हंस कर जो जां पर खेल जाता है
मौत भी उन से घबराती है डर को भी लगता है डर
राहे-वतन में जो निकले हों हाथ पे रख कर अपना सर
आन बान हैं देश में लेकिन याद रहेंगे 'लाल बहादुर'।

हर दौर में शायरों ने शराब के विषय पर शेर कहे हैं और अपनी तबीयतो के जौहर दिखाये हैं । अंजान के कुछ शेर इस विषय पर इस प्रकार है।

• क्या पूछते हो कैसे गुज़रती है इन दिनों
 बस मैं हूँ और गर्दिशे-जामे-शराब है

• उन को क्या काम भला जामे-मये -कौसर से
 जिन को तू अपनी निगाहों से पिला देता है।

• तू ने ऐ साकिए-महफ़िल कभी सोचा भी है
 कौन हर शाम तेरे दर पे सदा देता है

• मयकशी शैख़ जी भी करते हैं
 हाँ, मगर बरमला नहीं करते

• अफ़सोस सद अफ़सोस न तुम थे न सुबू था
 होने को तो इस बार भी बरसात हुई है।

• मयकशी बीते दिनों की बात है
 जाम से अब जाम टकराता नहीं

• उस शोख़ की परस्तिश और सैर मयकदों की
 ये कुफ़्र मेरे हक़ में ईमान हो गया है।

अंजान मुश्किल ज़मीनों में भी आसानी से शेर कह लेते हैं। उन का यह शेर देखें-

हो इनायत दर्दो-ग़म, रंजो-अलम
मांगते हैं तुम से हम रंजो-अलम

इस ग़ज़ल में रंजो-अलम रदीफ़ है और ग़म और हम कवाफ़ी हैं। ऐसी मुश्किल ज़मीन में अंजान ने आठ शेर बड़ी सहजता से कहे हैं जो एक मुश्किल काम है। और कोई इस संगलाख ज़मीन में शेर कहे तो कलेजा पानी हो जाये।

अंजान आवागमन की फिलॉसफी में भी यकीन रखते हैं

• सिलसिला जन्मों का क्यों थमता नहीं
 ले रहे हैं क्यों जनम जन्मों से हम।

आजकल सियासत एक होम इंडस्ट्री बन कर रह गई है। सियासत के नाम पर लूट खसूट का सिलसिला हमेशा जारी रहा है। अंजान इस से बे-खबर नहीं गुज़रे। फरमाते हैं-

सियासत ने कुछ ऐसा आ दबोचा है हक़ीक़त को
की अब अल्फ़ाज़ का मतलब भी मतलब से निकलता है।

शराफ़त से सियासत को हटाया जा नहीं सकता
चुभा हो गर कोई कांटा तो कांटे से निकलता है।


अंजान को अपने जज़्बों की सदाक़त पर भरोसा है। फरमाते हैं-

लौट कर आओगे हमारे पास
रूठ कर जाओगे कहां हम से।

अक़ीदत शर्त है यारो महब्बत और इबादत में
ये जज़्बा गर सलामत हो तो पत्थर भी पिघलता है।

प्राकृतिक सौन्दर्य पर एक शेर देखें-

क्यों भिगोती हो मेरे दामन को
पूछता है ये फूल शबनम से।

महबूब के अकस्मात आ जाने पर महबूबा की मनोस्थिति पर यह सुन्दर शेर देखें। कितना मुक़म्मल शेर है।

हैरत से मुझ को देख के तुम ने कहा था 'तुम'
कहते हुए फज़ाओं ने तुम को सुना था 'तुम'।

आखिर में कुछ और शेर पेश करता हूँ जिन में शायर की आत्मा को भिन्न भिन्न रंगों में देखा जा सकता है।

ख़ुदा ऐसा करे तुम भी किसी की याद में तड़पो
मेरी सूरत तुम्हें भी ज़िन्दगी दुश्वार हो जाये

हंस न इतने ज़ोर से जनाज़े के क़रीब
आ न जाये जान मुर्दे में तेरी आवाज़ से

दर्दे-दिल क़ाबिले शिफ़ा न रहा
ये भी हक़ में रहा, बुरा न रहा

बे वफ़ाओं से है उम्मीद वफ़ा की बेकार
कागज़ी फूल कहीं बूए वफ़ा देता है

दर्द दिल से जुदा नहीं करते
हम कभी ये ख़ता नहीं करते

तू इसे माने न माने बात है मानी हुई
चांद का टुकड़ा हुआ या तेरी पेशानी हुई

ख़ता मेरी फ़ितरत है, इंसान हूँ मैं
मुझे बे-गुनाही का दावा नहीं है

ग़म कहां हर किसी की किस्मत में
ये खुशी है किसी किसी के लिए।

अंजान दमा रोग से ग्रस्त रहते है। परमात्मा उन की सेहत में बरकत दे ताकि वह तादेर अपनी शायरी के माध्यम से साहित्य की सेवा करते रहें और उन के पाठक फैज़याब होते रहें। पिछले दिनों उन्हें एक अज़ीम सदमा से दो चार होना पड़ा। उन की अहलिया श्रीमति निर्मल सरीन स्वर्ग सिधार गईं। बड़ी नेक ख़ातून थीं।

दुआ करता हूँ कि अंजान का फानूसे-सुख़न रहती दुनिया तक जगमगाता रहे और रौशनी बिखेरता रहे।
आमीन!!