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भूमिका / सच कहना यूँ अंगारों पर चलना होता है

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जैसे बीज अंकुरित हो धरती फोड़कर बाहर आता है ,आकर ग्रहण करता है , पौधे के रूप में , लता के रूप में और विकसित होकर पूर्ण यौवन प्राप्त करता है वैसे ही प्रसिद्ध ग़ज़लकार डी एम मिश्र की ग़ज़ल हलचल-युक्त चेतना के बीच से प्रस्फुटित होकर विकास करती है | जन –पक्षधरता , सच्चे मनुष्य की पक्षधरता इनकी ग़ज़ल की रग –रग में मौजूद है | डी एम मिश्र ने समकालीन हिंदी ग़ज़ल की दुनिया को अधिक लोकोन्मुख बनाया है , उसे सँवारा है , और समृद्ध किया है | त्रिलोचन ,मानबहादुर सिंह- जैसे सुख्यात कवियों के जनपद में रहने वाले मिश्र जी ने हिंदी ग़ज़ल को नयी –नयी जगहों पर ले चलने का दायित्व निभाया है | दुष्यंत कुमार ,अदम गोंडवी की जनवादी-क्रांतिकारी गति के अधुनातन प्रखर ग़ज़लकार ,कवि डी एम मिश्र वैयक्तिक,सामाजिक ,राजनीतिक , सांस्कृतिक, पर्यावरणीय विकृतियों , विडम्बनाओं पर गहरी नज़र रखते हैं | इनकी दृष्टि में ‘दिखता है जो वह ही पूरा सत्य नही है’ | इसलिए ‘सच को सच’ कहने के लिए प्रतिबद्ध शायर मुखौटों के अन्दर छिपे षड्यंत्रों , लूटवादी प्रवृत्तियों को देखता है , उन्हें बेपर्द करते हुये सच दिखने पर ज़ोर देता है , प्रतिरोध में ग़ज़ल रचता है | यहाँ रचनाकार के कुछ शेर देखे जा सकते हैं :

परचम उठा लो हाथ में अब इन्क़लाब का
सब ताज तख़्त छीन लो बिगड़े नवाब का

ये हमारे दौर की उपलब्धियाँ
शहर की भी हो रही गुल बत्तियाँ

फल की क्या उम्मीद हो उस पेड़ से
जो चबा जाता हो अपनी पत्तियाँ

प्रचलित प्रतीकों, विम्बों को ग़ज़लकार नया अर्थ देता है। संकट से घिरे मामूली आदमी के तीखे संघर्षों को चित्रित करते हुए वह लिखता है:

इधर अंधेरे से दीये को लड़ना भी पड़ता
उधर ह‌वाओं से भी उसको बचना होता है

भूमंडलीकरण के दौर में, बाज़ारवादी व्यवस्था में, पूँजीवाद के वर्चस्व में आज हर चीज बिकाऊ हो गयी है;

क्या-क्या नहीं बाज़ार में इस बार बिक गया
सस्ते में मेरी कौम का सरदार बिक गया

‘आग खुद ही लगाकर बुझाने' वाले की, 'बाजू में शमशीर' रख ‘अहिंसा’ की बात करने वाले की, ‘मछली को चुपचाप गटक' 'खुद को साधू' कहने वाले बगूले की, ‘कबूतर’ को 'जाल में' फँसाने वाले 'चतुर शिकारी' की छद्‌म, चालाक, धोखेबाज़, लुटेरी, भोगवादी मानसिकता को खोल कर सामने रखने की कला में गजलकार निपुण है। यह साफ-साफ कहता है: ‘जनता रहे भूखी मज़े लें दावतों के आप’, ‘देखा है छद्‌म से भरा झूठा समाजवाद’। गोरख पाण्डेय ने भी व्यंग्य करते हुए लिखा है: समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई।

‘भ्रष्ट सिस्टम' से टकराकर ‘बागी' बनने वाले, ‘औरत' में ‘खुशबू का झोंका' के साथ 'तेज़ कटारी', ‘तूफां', 'आंधी' महसूस करने वाले, ‘विकास' के नाम पर ‘पेड़ों की कटाई', तबाही देखने वाले डी एम मिश्र वस्तुतः ‘धाराओं के विपरीत’, 'कांटे बिछे डगर’ पर चलने वाले, जलते रहने के बावजूद ‘राख नहीं’ बनने वाले, ‘ज़माना नया है, नयी रोशनी है' बताने वाले मज़बूत ग़ज़लकार हैं। ये परम्परागत ग़ज़ल के लौकिक, रोमांटिक, रहस्यात्मक, आध्यात्मिक इश्क, उसके मिठास, दर्द, पीड़ा, अंदाज की जगह सामान्य जीवन-जगत के रूखे, खुरदरे, कंटीले, संघर्षशील पक्ष को क़ाफ़िया, रदीफ़, बहर की दक्षता, मतला की विशेष असरकारिता के साथ सहज-सरल बोलचाल की भाषा में सफलतापूर्वक सामने लाते हैं। फलतः पाठकों के दिल, मन तक ग़ज़ल प्रभावकारी रूप से पहुँचती है। यहाँ एक सौ छह ग़ज़‌लें हैं, जो पाँच से नौ शेरों के बीच की हैं । आशा है, ‘सच कहना यूँ अंगारों पर चलना होता है' को व्यापक स्वीकार्यता मिलेगी।

- शम्भु बादल
कवि ,संपादक “प्रसंग"
पूर्व विभागाध्यक्ष ,हिंदी
विनोबा भावे विश्वविद्यालय,हज़ारीबाग
झारखण्ड