भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूमिदान कर चलो, जहान जी उठे / राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भूमिदान कर चलो, जहान जी उठे
प्राण-प्राण में धरा का मान जी उठे।
छा रहा जगत् में आज घोर अंधकार देख
कोई भूख मर रहा, न भर रहा है हाय पेट
और कोई बन अमीर सैकड़ों लुटा रहा
चूस कर गरीब को धान्य-धन जुटा रहा।
भेंट लो गरीब से ईमान जी उठे।
  भूमिदान कर चलो जहान जी उठे।

बिछुड़ गई है माँ धरा मिहनती किसान से
लाड़ले सुपुत्र से कि प्रेम के निशान से
इस दरिद्र राम की आज बन्दना करो
पाप जो थे ढो रहे उसकी वर्जना करो।
स्वामित्व दान कर चलो, इंसान जी उठे।
   भूमिदान कर चलो जहान जी उठे।

जमीन है बदल रही, बदल रहा है आसमान
तूफान आज चल चुका कि हो रहे हैं सब समान
प्रेम से हर एक की जरूरतों को जान लो
व्यर्थ खून ना बहे गरीब बंधु मान लो
सहस्त्र दीन रूप धर कि राम जी उठे।
   भूमिदान कर चलो जहान जी उठे।

उठ पड़ो हे भूमिपति! भूमिदान कर चलो
गाँव के ही बे-जमीन को सप्राण कर चलो
घर का एक मानकर दरिद्र आन रख चलो
कसम तुम्हें है हिंद की कि प्रेमदान कर चलो।
भारतीय धर्म का गुमान जी उठे।
   भूमिदान कर चलो जहान जी उठे।