भूमि-प्रकरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
अवनी - गिरि उरोज, परिसर उदर, पुलिन जघन वन केश
सिन्धु वसन, पुर-ग्राम मुख, अवनी रमनी वेश।।1।।
खेत-पथार - सोनक अङुठीमे खचित, नीलम हाट विकाय
नीलम मे सोना मढ़ल सरिसव खेत लुटाय!!2।।
रंग-रंग के रंगिनी काढ़ल बूटा-बेल?
तिल तीसी मटरक छिमड़ि फुलल-फलल कत मेल।।3।।
चर-चाँचर - वर्षा - बाढ़िक बेढ़ बढ़ि, चानी पीटल बाध
पन्ना बेढ़ल शरद पुनि, हेमत सोन अगाध।।4।।
खरिहान - वर्षा घाम सहय, खटय खुरुपि कोदारि कतेक
खेत - मजूर क धान लय धनि खरिहान विवेक।।5।।
मरुभूमि - तृण-तरु नहि, नद-नदी नहि, शस्य श्याम नहि खेत
तदपि झलक अह-निस कनक-राजत सिकता ढेर।।6।।
वन देश - ऊँच - नीच घाटी -तटी तृण-तरु वर्ग विशेष
मृग मृगपति रहितहुँ, प्रजा द्वंद्व रहित वन देश।।7।।
गाछ - फल-फूले आधार पुनि नगन, गगन तर वास
रौद-शीत कत सहि रहल गहल गाछ संन्यास।।8।।
मेघ पिआबय पानि पुनि, भूमि सुरस आहार
गगन सबद सुनबय, गमहि पवन बहारय द्वार।।9।।
गाछी - गाय चरा, औषध जुरा’ छाहरि दय भरि गाम
गाछ बाछ पालय सदय गाछी-माँ अविराम।।10।।
मेघ पिआबय पानि तरु, धरती रस आहार
अवर अंबर लय, पवन परस स्वरक झंकार।।11।।
लता - पल्लव कर पद रक्त रुचि, शुचि कपोल कलिकाक
कुसुम गुच्छ परतच्छ अछि परिणत वय लतिकाक।।12।।
आ-नखशिख कुसुमाभरण, पल्लव पट परिधान
लता युवति मन मत वरण तरुण तरुक सविधान।।13।।
पर्वत - माथ पाग जलधर सजल, चादरि निर्झर कान्ह
वन चपकन, तरु फराठी, पर्वत बूढ़ पुरान।।14।।
सागर - विभु व्यापक, तन नील रुचि, मणि राजित उर धाम
शंख पाणि, सुरसरि चरण, जयतु नीरनिधि श्याम।।15।।
निर्झरिणी - युग तट सुघटित जिल्द पट सैकत पत्र प्रशस्त
निर्झरिणी दु्रत लेखनी, प्रकृति लेखिका व्यस्त।।16।।