भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूरे की हरी छाया / उंगारेत्ती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: उंगारेत्ती  » संग्रह: मत्स्य-परी का गीत
»  भूरे की हरी छाया


साँप की छोड़ी गई केंचुल

से ले कर कातर मस्से तक

भूरे की हर छाया

रेंगती है गिरजाघरों पर...

एक स्वर्णिम पोत की तरह


सूर्य

विदा लेता है

एक-एक तारे से

और गुस्सा होता है मंडुवे तले...


रात फिर उतर आती है

थके माथे की तरह

एक हथेली की खोखल में ।