भूलना भी चाहा था / अशोक 'मिज़ाज'
भूलना भी चाहा था, कोशिशें भी की लेकिन, आज तक नहीं भूले
ज़िंदगी के कुछ लम्हे, जिंदगी के कुछ क़िस्से, जिंदगी के कुछ चेहरे
दिल में कुछ परिंदे हैं सब के सब ही ज़ख्मी हैं, मैंने पाल रक्खे हैं
इनमें ख़ासियत ये है, दिल से चिपके रहते हैं, और कहीं नहीं जाते
मेरे दिल में मत झाँको, दिल में और क्या है अब, मैं तुम्हें दिखाऊँ क्या
बेबसी की कुछ ग़ज़लें, बेकली की कुछ नज़्में कुछ घुटे हुये नग़्मे
जिंदगी तवाइफ़ सी पहले रोज़ हँसती थी, और ख़ूब गाती थी
जबसे मैं हुआ मुफ़लिस, उसके पाँव के घुँघरू, अब कभी नहीं बजते
इक फ़कीर ने मुझको, एक दिन दुआ दी थी, जा तेरा भला होगा
और मैं उसी दिन से आज तक परेशाँ हूँ, मोल की दुआ ले के
हम ‘मिज़ाज’ सोना हैं, दोस्त हों कि दुश्मन हों सब हमें परखते हैं
आग की कसौटी पर, इम्तहान देने से, हम कभी नहीं डरते