भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूला राग / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई छंदों के बंध का बंदी नहीं जो मैं अक्षर जोड़ता जा रहा हूँ
हर अक्षर है टुकड़ा दिल का, दिल टूटा हुआ मैं जुटा रहा हूँ;
कोई गाना नहीं, यह एक फ़िसाना है जीवन का, जो सुना रहा हूँ
एक दर्द की रागिनी दाग़ों के काले सुरों पर आज बजा रहा हूँ।

एक वक़्त था, एक जमाना हुआ, जब भाग पै फूला समाता न था,
मेरा छोटा-सा बाग़ यहीं कहीं था, जो कि नंदन को भी लगाता न था,
दुनिया से जुदा घोंसला था मेरा; कौन था, देख के जो सिहाता न था!
ऋतुराज यहाँ बस आता ही था और आता जो था, फिर जाता न था।

हँसता ही सदा दिन था रहता, चाँदनी की निशा मनभावनी थी,
जब रंग-बिरंगी खिली-खिलती कलिकाओं की टोली सुहावनी थी;
नित रंग-रली-रत राग-भरे तितली-दल की छावनी थी,
जहाँ प्रेम का राग अलापते-से अलि-बालों की गुंजित लावनी थी।

आज सूनी पड़ी वह बाटिका है, आशियाने का भी न ठिकाना है रे!
हरियाली नहीं वह लाली नहीं, यह प्रान्तर आज वीराना है रे!
न बहार ही कोई बहार यहाँ, न सुगंध का राजखजाना है रे!
दल पीले पड़े धूल में कहते, आज कोंपलों का यह बाना है रे!

सुख की मुझसे मत पूछो कथा, सुख का मुझसे तभी साथ छुटा,
जब हाथ में आये हुए सुख का विधिलीला से बेबस हाथ छुटा;
देखता ही रहा, कुछ हो न सका और जीवन का हर हार लुटा,
बाट जोहती-सी एक लालसा का दिल में अरमान घुटा।

दुख देख मेरा रो पड़ा आसमाँ ओस-बूँदों से आँसू बहाने लगा,
लालसा कि समाधि पै रोता हुआ चाँद तारों के फूल चढ़ाने लगा;
मेरी आहों के दाह से काला बना पिक दर्द-कहानी सुनाने लगा,
आग खाने चकोर लगा तब से, पपीहा 'पी कहाँ' गुहराने लगा।

आसमान में छेद हजारों हुए, चाँद के दिल में वह दाग बना,
दुख मेरा पयोनिधि के उर में बड़वा-सी भयंकर आग बना,
वह भाग बना, बिरही को मिला और सूने सितारों का राग बना,
बेकली की निशा को रिझाते हुए बाँसुरी की कथा का बिहाग बना।

उसी भूले हुए राग के सुर को फिर आज ज़रा दुहरा रहा हूँ,
मुरझाया हुआ यह घाव कुरेद-कुरेद के ताज़ा बना रहा हूँ,
एक आग, जो राखों के नीचे दबी है पड़ी, दिल फूँक जगा रहा हूँ,
वेदना कि समाधि पै साधना का तप-दीपक एक जला रहा हूँ।