भूली-सी दशा में / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
देखो तो, कोई विराम नहीं
कितने अयुत कल्पों से रात-दिन
सृष्टि के विराट अन्तर्पट पर,
आदिमध्यान्तरहित रूप-प्रतिरूप में,
हो रही लीला ध्वंस-सृजन की।
हवा के झकोरे से गिरा वीज,
अंश रूप महाचैतन्य का।
खोल कर मुक्ति का सिंह द्वार,
मृत्तिका के गर्भ में स्वर्ग को निवेदित कर,
छन्द बन जीवन का, अर्घ्य पूर्णाहुति का।
राग से लाल-लाल छाई छटा किसलय की।
गुणीभूत व्यंग्य की व्य´्ना में किसके निवेदन पर?
खिलते हुए मुकुलों पर मण्डित सौन्दर्य से-
व्य´्जित हो गए वर्ण, भाव, रस, अलंकार
रमणीय ध्वनिमूलक शबद-चित्र, अर्थ-चित्र।
जागता है जीवन जिस बिन्दु पर,
होता वहीं उसका अन्त मरण में।
वेदना से भाराक्रान्त दीर्घ निःश्वास फेंक,
खण्ड-रूप छोड़ कर निखिल से एकरूप।
नव-नव विलास के उत्सव में-
पद-पद पर रहने, नहीं रहने का-
अद्भुत चिरन्तन का अभिनय यह विस्मयप्रद।