भूलूँ? लेकिन भूलूँ कैसे / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
भूलूँ? लेकिन भूलूँ कैसे
मानव हूँ, संग मनुजता है
मन के कोने में आशा भी
पलती है, यह दुर्बलता है
जिसकी करूणा की छाया में
मिलती आई है नींद मधुर
जिसके इंगित पर माया में
पलती आई उम्मीद मधुर
जिसकी ममतामय भाषा में
समपने का मधुमय गीत मिला
जिसकी सुमधुर मुस्कानों में
मुझको जीवन संगीत मिला
जिसकी स्वर लहरी पर मेरी
स्वर लहरी निखर उठी सहसा
जिसके क्रन्दन में करूणा की
दो बूँदें बिखर उठीं सहसा
जिसके छूने से जीवन की
पतझड़ में फिर मधुमास खिलाा
जिसकी कोमल झंकारों पर
अग-जग का नीलाकाश हिला
जिसने मेरी इस कुटिया को
भू पर ही स्वर्ग बना डाला
नीचे से लेकर ऊपर तक
अविषम नव वर्ग बना डाला
जिसकी पुतली पर प्रतिविम्बित
मुझको सारा संसार मिला
जिसकी छवि में मेरे कवि को
बढ़ने का नव आधार मिला
जिसको निहार कर ये आँखें
रे फूली नहीं समाती थीं
वेदना भाग जाती पल में
भावना उमड़ आ जाती थी
वह रूप भला इन आँखों से
मैं कैसे दूर करूँ बोलो
मेरे अन्तर की व्यथा जरा
अपनी धड़कन पर ले तोलो
सीधे कह देने से केवल
यह प्रश्न नहीं हल होता है
केवल धारा पर बहने से
मन कभी न निर्मल होता है