भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भूले स्वाद बेर के / नागार्जुन
Kavita Kosh से
सीता हुई भूमिगत, सखी बनी सूपन खा
बचन बिसर गए गए देर के सबेर के !
बन गया साहूकार लंकापति विभीषण
पा गए अभयदान शावक कुबेर के !
जी उठा दसकंधर, स्तब्ध हुए मुनिगण
हावी हुआ स्वर्थामरिग कंधों पर शेर के !
बुढ्भंस की लीला है, काम के रहे न राम
शबरी न याद रही, भूले स्वाद बेर के !
१९६१ में लिखी गई