भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूले हुए / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गली से गुजरता
नजदीक आया
कभी तो सोचता है
मिल चले
बिछड़ों से
पर तुम तो देखकर भी
नजरें फिरा लेती हो
खुद को अजनबी बना लेती हो
काट दिया क्या नाम
खुरच दी क्या यादें
क्या कम समय लगता है मिटाने में
जितना लगता है बनाने में
एक तिनका अटका है आँखों में
धुँधलापन है चारों ओर
गंध की मदद लो
सूँघो रिश्तों को
पलटो पन्ने
तो राह मिल जायेगी
फिर तो कई भूली हुई बातें याद आयेंगी
लौटोगी अपने-आपमें
फेरोगी शब्दों पर हाथ
काँपती रहेगी उँगलियाँ
रह-रहकर उठेगी हूक
फिर ना रह पाओगी मूक
हृदय से निकली चीख
गले को खोल देगी
पुरानी यादें फिर हमला बोल देंगी
आह! कितना समय गुजर गया
दस्तक दे रहा बुढ़ापा
मिलो, अब तो मिलो
कि जाने की बेला है
कि दुनिया
बिछड़े हुओं का मेला है।