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भूल गया घर-आँगन यादों से बाहर बाज़ार हुआ / रामदरश मिश्र

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भूल गया घर-आँगन यादों से बाहर बाज़ार हुआ
आज बहुत दिन बाद बेख़ुदी में ख़ुद का दीदार हुआ

टूट गये नाते-रिश्ते सब, चैन लूटते हाथों से
औरों की आँसुओं-भरी आँखों से कितना प्यार हुआ

लगा कि हर रस्ता अपना है हर ज़मीन है अपनी ही
अपनेपन से हरा-भरा हर दिन जैसे त्यौहार हुआ

बैठा रहा चैन से, जाते लोग रहे क्या-क्या पाने
पर जब दी आवाज़ शजर ने जाने को लाचार हुआ

‘कल सोचूँगा-क्या करना है’, कहता रहा मेरा रहबर
बीता कितना वक़्त और यह वादा कितनी बार हुआ

ख़ुद के लिए रहे बनते तुम तरह-तरह की दीवारें
खुली हवा से बह न सके, जीवन सारा बेकार हुआ

कब तक फैलाते जाओगे सौदे वहशी ख़्वाबों के
तुम भी अब दूकान समेटो, शाम हुई अंधियार हुआ

आओ थोड़ा वक़्त बचा है साथ-साथ हँस लें, गालें
लेन-देन का हिसाब जो हुआ सो मेरे यार हुआ