भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भूल जाने कहाँ कौन सी हो गई / अशोक रावत
Kavita Kosh से
भूल जाने कहाँ कौन सी हो गई,
एक मैदान सी हर नदी हो गई.
वो ही मंज़र निगाहों में ठहरे हुए,
देखते देखते ज़िंदगी हो गई.
दूर जाकर खड़ी हो गई एक दिन,
मुझसे छाया मेरी जब बड़ी हो गई.
हम अलग हो गए हैं पता तब चला,
एक दीवार सी जब खड़ी हो गई.
चाय का एक कप याद आया बहुत,
धूप थोड़ी सी जब गुनगुनी हो गयी.
मेरा बेटा मेरा आइना हो गया.
बेटी हाथों की मेरी छड़ी हो गई.
हौसला मेरा जीने का बढ़ता गया,
जब ग़मों से मेरी दोस्ती हो गई.
वो चला ही गया उसको जाना ही था,
मेरी बेजान सी हर खुशी हो गई.
कृष्ण बेजान क्यों है सुदर्शन तेरा,
और ख़ामोश क्यों बाँसुरी हो गई.
रथ उजालो का जाने कहाँ रह गया,
किस अँधेरे में गुम रौशनी हो गई.