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भूल तुम मुझको गईं तो, दर्द से पागल बनूँ क्यों / गौरव शुक्ल

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" भूल तुम मुझको गईं तो, दर्द से पागल बनूँ क्यों,
तुम मिली ही कब मुझे थीं, जो तुम्हें खोना कठिन है।

यदि कभी दो बोल मीठे बोल भी तुमने दिये तो,
प्यार का संकेत मैं उसको समझ खुश हो गया क्यों?
बेतकल्लुफ तुम ज़रा से साथ मेरे हो गये तो,
मैं दिवस में ही हजारों स्वप्न रँग में खो गया क्यों?

भावनाओं से हृदय को इस तरह भरने दिया क्यों?
कामनाओं को विचरने क्यों दिया निर्मुक्त होकर?
वागुरा मन की शिथिल करता चला ही क्यों गया मैं?
बावला क्यों बन गया कुछ वायवी सपने सँजोकर?

जी सका मैं कब भला अपनी समूची चेतना में,
जो कि अब इस शून्यता के बोझ को ढोना कठिन है।
भूल तुम मुझको गईं तो, दर्द से पागल बनूँ क्यों,
तुम मिली ही कब मुझे थीं, जो तुम्हें खोना कठिन है॥

कब खुशी मुझको मिली इतनी कि छँट पाती उदासी,
कब मिला निर्झर कि जिसमें स्नान कर के ताप खोता;
वह विटप मेरी पहुँच से दूर ही बहुधा रहा है,
बैठ जिसकी छाँव में कुछ शांति, शीतलता सँजोता।

कब मिला वरदान जो हर शाप से आजाद करता,
कब बना संयोग जिसमें दो घड़ी मैं झूम लेता,
हर कदम पर मात्र असफलता खड़ी थी भेंटने को,
कब सफलता पास इतनी थी कि बढ़कर चूम लेता।

ये सभी अभ्यास मुझको सिद्ध विधिवत हो गये अब,
मैं हँसा कब इस तरह था जो कि अब रोना कठिन है।
भूल तुम मुझको गईं तो, दर्द से पागल बनूँ क्यों,
तुम मिली ही कब मुझे थीं, जो तुम्हें खोना कठिन है।

दूर तक मेरे सफ़र में, साथ तुम चलते रहे पर,
साथ जीवन भर निभाने का वचन तुमने दिया कब?
दर्द को मेरे घटाकर कम बहुत तुम ने किया पर,
दर्द को जड़ से मिटाने का वचन तुम ने दिया कब?

पूजने मैं खुद लगा, मन में तुम्हारी मूर्ति रखकर,
कब दिया इस हेतु मुझको स्पष्टत: अधिकार तुम ने?
जो खुशी मुझको मिली थी, वह तुम्हारी दी हुई थी,
छीन भी ली, तो दिया कर, कौन अत्याचार तुम ने?

जो किया तुम ने, तुम्हारे हित वही शायद उचित था,
पर तुम्हारी भाँति तो मेरे लिये होना कठिन है।
भूल तुम मुझको गईं तो, दर्द से पागल बनूँ क्यों,
तुम मिली ही कब मुझे थीं, जो तुम्हें खोना कठिन है।