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भूल / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
आम बात है प्रेम में शब्दों का भूल जाना
यहीं हम सीखते हैं विराम-चिन्हों का महत्व, सुनते हुए
चुप की चीख़ती आवाज़
हमेशा हाथ लगता कोई ग़लत शब्द
आतुर उँगलियों से टटोलते,
शब्दों के पुराने झोले को -- प्रेम में
भूल जाते हम पुरातन शब्द और उतरन की मुद्राएँ
स्मृतियों के झुटपुटे में ऐसे ही रख छोड़ते, अस्त-व्यस्त-सी जगह पर
अटपटी भाषा और भंगिमाएँ प्रेम के समकाल की
वाक्य-विन्यास और
शब्दों के सुन्दर चित्र भूल आए हम संसार की पुरानी मेज़ पर
और
भूल आए कोई थरथराता पुल -- धूप में
व्यक्त भाषा के अंतरालों में बैठकर,
हँसते रहते प्रेम में भूले शब्द--
अवश भाषा की पगडँडियों पर जो उग आते
अनचीह्ने जंगली फूल --
इन्हें दोबारा नहीं देख पाएँगे ।