भू दान / रमाकांत द्विवेदी 'रमता'
भारत अइसन महादेश में पैदल गाँवे-गाँवे।
धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनावा भावे।
जे ना सहल घाम, बरखा-आ-माघ-पूस के पाला,
जेकर हर-हेंगा ना कवहूँ बाबें-दहिन बुझाला,
जेकर धी-पतोह ना जाने कइसे धान रोपाला,
धनि रे न्याय! इहाँ धरती के मालिक उहे कहाला,
जुग-जुग के दुखिया किसान के बाजिब हक दियबावे।
धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनोवा भावे।
एने सुबहित सतुआ दूलम, ओने उड़े मलाई,
एने सपना फटही कामरि, ओने गरम रजाई,
बाबू कहते जनम सिराइल, बाबू कूर-कसाई,
फाटऽ धरती! इहाँ अबरुआ के मेहरि भउजाई,
धन के मेटि गुमान, बरोबर एक समान बनावे।
धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनोवा भावे।
तेलँगाना खीसी काँपे, दिल्ली देले झाँसा,
एने लाख-करोड़ों अदिमी बाड़े परल बेकासा,
जल्दी जो फाँसिला ना होई, लागी बड़ा तमासा,
छहसत बा, लाठी-भाला-गँड़ास के लवटी पासा,
आपुस के फुटमत से घर के लँकाकाँड बचावे।
धरती माँगत घूमत बाड़े बूढ़ बिनोवा भावे।