भृगु वल्ली / तैत्तिरीयोपनिषद / मृदुल कीर्ति
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प्रथम अनुवाक
की वरुण पुत्र भृगु ने उत्कट चाहना ब्रह्मत्व की,
वरुण बोले तात ! इन्द्रियां द्वार हैं गंतव्य की.
जिसके सहारे जीते प्राणी, सृजित करते प्रयाण हैं
जिज्ञासु बन वही ब्रह्म टाप से जानो, ब्रह्म ही प्राण हैं॥ [ १ ]
द्वितीय अनुवाक
है अन्न जीवन प्राण , प्राणी का प्रयाण भी अन्न से,
हो पुनि प्रवेश भी अन्न में, पुनि पायें जीवन अन्न से.
इति अन्न ब्रह्म है तथ्य यह , भृगु ने पिटा से अथ कहा,
बोले पिता कि ब्रह्म को , पुनि तप से जानो जो महा॥ [ १ ]
तृतीय अनुवाक
इस प्राण से भी प्राणी सब उत्पन्न और जीवंत हैं,
और प्राण में ही प्रविष्ट पुनि -पुनि फ़िर प्रयाण व् अंत है.
इति प्राण को ही ब्रह्म जान कर भृगु वरुण से पूछते,
कहा भृगु ने, विज्ञ तप से ही ब्रह्म होता, ऋत मते॥ [ १ ]
चतुर्थ अनुवाक
इस मन से ही तो प्राणी सब उत्पन्न और जीवंत हैं.
मन में ही होता प्रवेश पुनि -पुनि फ़िर प्रयाण व् अंत है.
इति मन को तत्व से ब्र्श्म जाना, भृगु वरुण से पूछते,
कहा भृगु ने ब्रह्म तप से विज्ञ होगा ऋत मते॥ [ १ ]
पंचम अनुवाक
विज्ञानं से ही प्राणी सब जीवंत और उत्पन्न हैं,
विज्ञान में ही प्रवेश पुनि-पुनि फ़िर प्रयाण व् अंत है.
अथ मान कर, विज्ञान ब्रह्म है, भृगु वरुण से पूछते ,
तब कहा भृगु ने ब्रह्म केवल विज्ञ तप से हो ऋत मते॥ [ १ ]
षष्ठ अनुवाक
आनंद रूप है ब्रह्म जिससे ही प्राणी सब उत्पन्न हैं ,
आनंद में ही प्रवेश पुनि-पुनि , फ़िर प्रयाण व् अंत है.
अथ वरुण से उपदिष्ट भृगु से , विदित विद्या ही ब्रह्म है,
जो प्राण, अन्न, समस्त लोकों का ज्ञाता, पाता अगम्य है॥ [ १ ]
सप्तम अनुवाक
यही प्राण अन्न है, अन्न प्राण है, जिससे शक्ति है जीवनी,
नहीं अन्न की निंदा करें , यही अन्न है संजीवनी.
इस अन्न में ही अन्न स्थित, अन्न प्राणाधार हैं,
ब्रह्म वर्चस प्रजा पशु व् कीर्ति का, तो अन्न ही आधार है॥ [ १ ]
अष्टम अनुवाक
ज्योति व् जल में भी प्रतिष्ठित , अन्न का ही रूप है,
जल में तेज है, तेज में जल, आनन्योश्राय स्वरुप है.
न हो अन्न की अवहेलना , सम्मान हो व्रत साधना,
संतान, पशु, धन, धान्य कीर्ति से बहु प्रतिष्ठित वह बना॥ [ १ ]
नवम अनुवाक
आकाश में पृथ्वी प्रतिष्ठित और धरा है व्योम में,
अथ अन्न में ही अन्न स्थित, प्रकृति सार्वभौम में.
हो अन्न का विस्तार जिस मानव का व्रत संकल्प हो,
वह ब्रह्म वर्चस , प्रजा , पशुओं से युक्त काया कल्प हो॥ [ १ ]
दशम अनुवाक
हैं अतिथि देवो भव की वृतियां , संचरित जिस प्राणी में,
पाता स्वयम समृद्धि होता , स्वागतम जिस वाणी में .
जो मध्य निम्न का भव हो तो तथैव उसको भी मिले,
जो अतिथि सेवा का मार्ग जाने , ऋद्धि श्री वृद्धि मिले॥ [ १ ]
अपां प्राण में प्राप्ति रक्षा , वाणी में कल्याण की,
पैरों में गति, हाथों में कर्म की शक्ति , ब्रह्म महान की.
बिजली में बल , वृष्टि में तृप्ति , नक्षत्र नभ में प्रकाश हैं,
शक्ति विभूति प्रजा वीर्य में, ब्रह्म तेज विकास है॥ [ २ ]
जिस रूप में करता उपासक ब्रह्म की अभ्यर्थना ,
उस रूप में ही ब्रह्म अथ स्वीकार करता प्रार्थना .
जो भाव रूप हो प्रार्थना का स्वयम भी तद्रूप हो,
हो ब्रह्म जिनका लक्ष्य केवल , वे भी भक्त अनूप हों॥ [ ३ ]
परमात्मा जो है मनुष्यों में वही आदित्य में,
है ब्रह्म अन्तर्यामी एक ही, बसता नित्य अनित्य में.
क्रम अन्न , प्राण, मनोमय, विज्ञानं माया आनंद को,
जो जानता इच्छित गमन ,करे साम गायन छंद को॥ [ ४ ]
आश्चर्य ! ब्रह्म ही अन्न ,भोक्ता, अन्न संयोजक महे,
उस अन्नमय अन्न स्वरुप को व्यक्त क्या कैसे कहें?
अति आदि देवों से प्रथम और है सुधा का केन्द्र भी,
आद्यंत है वह अन्नमय, रवि ज्योति पुंज रवींद्र भी॥ [ ५ ]
कृष्णा यजुर्वेदीय तैत्तरीयोपनिषद समाप्त
शान्ति पाठ
मम हेतु शुभ हो इन्द्र मित्र, वरुण , बृहस्पति, अर्यमा,
प्रत्यक्ष ब्रह्म हो,प्राण वायु देव तुम तुमको नमः
प्रभो ग्रहण , भाषण, आचरण हो,सत्य का हमसे सदा.
ऋतू रूप ऋतू के अधिष्ठाता, होवें हम रक्षित सदा.