भेड़ें / स्वप्निल श्रीवास्तव
भेड़ें बहुत मासूम होती हैं ।
वे हर काम समूह में करती हैं ।
समूह में चलती हैं और समूह में खाई में गिरती हैं ।
चतुर गड़रिये उन्हें तमाम तरह के प्रलोभन देते रहते हैं ।
वे उन्हें बहुत बड़े घास के मैदान के बारे में
बताते हुए कहते है कि
अमुक घास के मैदान की घास खाने के बाद
बहुत दिनों तक भूख ख़त्म हो जाती है ।
कभी कभी उन्हें स्वादिष्ट घास खिलाकर प्रमाण भी देते रहते हैं ।
इस तरह वे उनके दिमाग पर कब्ज़ा करते रहते हैं ।
गड़रिये जो चाहते हैं, भेड़ें वही करती है ।
गड़रियों के पास प्रशिक्षित कुत्ते होते हैं,
वे उनकी निगरानी में लगे रहते हैं ।
कभी-कभी वे हिंसक हो जाते हैं । भेड़े डर जाती हैं ।
गड़रिये चतुराई से
उनकी पीठ से ऊन उतारते रहते हैं ।
और उसे बाज़ार में बेचकर अमीर बन जाते है ।
गड़रिये किसी इलाके तक सीमित नही हैं ।
वे राष्ट्रीय हो चुके हैं ।
उनकी तकनीक विकसित हो चुकी है ।
गड़रिये भेड़ों को संगठित नही होने देते ।
उन्हें विभाजित करते रहते हैं ।
भेड़ें इस षड्यन्त्र को समझ नही पातीं ।
सदियाँ गुज़र गईं,
भेड़ें अपनी मासूमियत से बाहर नही निकल पाईं
और गड़रिये शातिर होते चले गए ।