भेडि़या निकल आया है माँद से / कौशल किशोर
वह आये
ज़रूरी नहीं
वह इतिहास की राह पकड़ कर आये
ज़रूरी नहीं
वह दिव्य रूप धरे अवतरित हो
जन्म से
उसके मुंह में चांदी का चम्मच हो
वह आ सकता है
लोकतंत्र के रास्ते आ सकता है
स्मृतियों को रौंदता
संस्कृति का नया पाठ पढ़ाता
वह आ सकता है
जैसे वह आया है इस बार
ढ़ोल, नगाड़ा, ताशा...
एक ही ध्वनि-प्रतिध्वनि
अबकी बार...बस...बस अपनी सरकार
और इस आगत के स्वागत में
जयकारा करती भीड़ है
नशा उन्माद
इसकी लीद है
इस लीद पर सवार
वह आया है इस बार
कितनी खिली हैं उसकी बांछे
लाला किले के प्राचीर से
वह करता शंखनाद
घूम रहा दुनिया दुनिया
'युद्ध नहीं, बुद्ध' का संदेश
गोडसे-मुख में गांधी
गीता का उपदेश
वह बांसुरी बजाता।
स्वर लहरियों पर लहराता
ड्रम की धुन पर थिरकता
झाड़ू चलाता
मदारी की तरह आंखें नचाता
अपना बहुरूप दिखाता
पास उसके बड़ी पोटली है
इसमें किस्से कहानी है
यह तो ट्रेलर है
पूरी फ़िल्म अभी बाकी है
समरसता का अदभुत मेल है
क्रूरता और दरियादिली का
निरंकुशता और लोकतंत्र का
मिलाजुला खेल है
यहाँ रक्तसने हाथ हैं
तो मसीहाई अन्दाज है
मालिक का गुरूर है
तो प्रधान सेवक का नूर है
पहले वह मारता है
फिर मुआवजा बांटता है
'हुआं हुआं' तो हुआ
और न हुआ, तो क्या हुआ
बुझो, समझौता एक्सप्रेस हुआ
ऐसा ही मायालोक रचता
वह अवतरित है र्रंगमंच पर
रंगमंच पर अब देश नहीं दृश्य है
विडम्बनाओं, विसंगतियों और भ्रमों से भरा परिदृश्य है
और नेपथ्य में?
नेपथ्य में शोर, कोलाहल, चीखें...
बाथे, बथानी टोला, छत्तीसगढ़...
यहाँ से वहाँ, कहाँ से कहाँ तक
रक्तरंजीत धरती पर बिछी है भारत माता
कि उघाड़ी गईं कोखें
अब नहीं जनेंगी मुक्तिचीते
ये किनकी संगीने हैं
जो विजय उल्लास में तनी हैं
नेपथ्य में कैसा भयावह सन्नाटा?
चारो तरफ फैली है चिरांयध
यह फैय्याज खां साहब का मकबरा है
या मलवे का ढेर
क्यों बेचैन हैं पंडित जसराज
उधर बिखरी लाशों की ढूह पर बैठी
बुढिया क्यों रो रही
किसके लिए
इधर जल रही बस्तियों से
कौन सुलगा रहा अपनी सिगरेट?
अपनी विस्फारित आंखों से
मैं देख रहा हूँ
स्तम्भों को
चटकते, गिरते, ढहते, ध्वस्त होते
और इस ध्वंस पर उदित होता
खिलखिलाता
जन गण मन अधिनायक भारत भाग्य विधाता
क्या आप भी देख पा रहे हैं?
उसकी पीठ पर यह किसका हाथ है
और कहाँ झुका है
छप्पन इंच का चौड़ा सीना
हथेलियों में हथेलियाँ
अंगुलियों में अ्रगुलियाँ फंसाये
कितना गर्म मुलायम स्पर्श
जहाँ से अविरल बह रही है
चेहरें के यौवन को सींचती ऊर्जावान धाराएँ
बड़ी चमकीली हैं सच्चाई की किरणें
छिपाते छिपाते भी नहीं छिपती
बाहर आ ही जाती हैं
दिख ही जाती हैं आखिरकार...
यह वक्त है
जब मेरे अन्दर उतर आया है
मेरा प्रिय कवि सर्वेश्वर
ललकारता-
उठो, तुम मशाल जलाओ
भेडि़या निकल आया है मांद से
तुम मशाल को ऊँचा उठाओ
भेडिये के करीब जाओ
करोड़ों हाथों में मशाल लेकर
एक एक झाड़ी की ओर बढ़ों
भेडि़या भागेगा
सब भेडि़ये भागेंगे
वक्त ऐसा ही है
तुम मशाल जलाओ
उसे ऊँचा उठाओ.
(इस कविता की रचना के समय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'भेडि़या' मन मस्तिष्क में उमड़ घुमड़ रही थी, प्रेरक के रूप में। यह कविता लखनऊ में आयोजित 'कविता: 16 मई के बाद' में पढ़ी गई.)