वह ढ़ोता रहा
दिनभर पीठ पर
तारों के बड़ल
जैसे कोल्हू का बैल
होती रही छमाछम
बारिश दिन भर
टपकता रहा उसका
छप्पर रातभर
होता रहा
उसका बिस्तर
पानी-पानी
दिल उकसते ही
वह फिर चला गया
मानों चक्रव्यूह को भेदने।
वह ढ़ोता रहा
दिनभर पीठ पर
तारों के बड़ल
जैसे कोल्हू का बैल
होती रही छमाछम
बारिश दिन भर
टपकता रहा उसका
छप्पर रातभर
होता रहा
उसका बिस्तर
पानी-पानी
दिल उकसते ही
वह फिर चला गया
मानों चक्रव्यूह को भेदने।