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भैंस सुनती बांसुरी / शशिकान्त गीते
Kavita Kosh से
बुर्ज ऊपर,
बहुत ऊपर
और चढ़ना भी ज़रूरी
सीढ़ियाँ मलबा,
बगल घाटी पड़ी
रस्सियाँ टूटी हुई
मुश्किल बड़ी
लौह से संकल्प पल-पल
हो रही बट्टी कपूरी
कौन खोजे हल,
छिड़ीं हैं गर्म बहसें
भैंस सुनती
बांसुरी
रोएँ हंसें
कुछ अपाहिज जन्म से
कर रहे बातें खजूरी