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भोगूँ मैं वे दुख सभी / कुमार सौरभ
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					भोगूँ मैं वे दुख सभी
जो भोगता कोई कहीं है 
इसलिये 
कि नहीं दुनिया है वैसी
जैसी होनी चाहिए !
डराएँ 
वे डर मुझे 
बेधे मुझे वे वेदनाएँ
और तड़पाएँ मुझे वे बेबसी 
जो हैं गुँथते
रोज कितने अनुभवों में 
इसलिए
कि नहीं दुनिया है वैसी
जैसी होनी चाहिए !
वे क्षोभ
वे आक्रोश
वे विद्रोह
मुझमें पले दहके
जो हैं पनपते 
किसी मन में
कहीं क्षण भर के लिए भी 
इसलिए 
कि नहीं दुनिया है वैसी
जैसी होनी चाहिए !
सामर्थ्य भर जो लड़ रहे
लड़ते हुए जो मर गये
जो डर गये
जो अवाक हैं 
लाचार हैं
जो निरीह व अनजान हैं
संग उनके मैं भी 
अपनी तुच्छ ताकत जोड़ दूँ
चाहिए वैसी ही दुनिया 
जैसी होनी चाहिए !
	
	