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भोग आरती / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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245.

विजय करोँ प्रभु अन्तर्यामी। भुवन चतुर्दश अन्तर्यामी॥
सुरसरि चरन पछालित कीजै। चरनामृत देवनको दीजै॥
भोजन कीजै षट रस स्वादी। संत अनंत पाव परसादी॥
तुव गति अविगति अगम अपारा। मैं अति दीन अधीन बेचारा॥
जो कनिका पनवारा पावे। धरनी ध्यान ताहि सो लावै॥1॥

246.

भक्त-वछल जव भोग लगावै। पंचामृत षट्रस रुचि भावै॥
आदि कुमारी चौका सारै। चरन खटारै वेद विचारै॥
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर देवा। कर जोरि ठाढ़ करेँ सब सेवा॥
आरति सन्त अनन्त विराजै। सहजै शब्द अनाहद बाजै॥
धरनी प्रभु देवको देवा। मानि लेत सेवककी सेवा॥2॥

247.

भक्त-वछल जेवहिँ जेवनार। तीन लोक होइ जय जयकार॥
शारद सेवकिनि चौका सारे। ब्रह्मा सोई रसाइ सुधारै॥
नारद निर्मल जल भरि लावै। शिव सनकादिक चँवर डोलावै॥
धु्रव प्रहलाद आरती गावै। नामदेव तँह शंख बजावै॥
धरनी दास दास को दास। मन वच क्रम जूठन की आस॥3॥