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भोरहीं के भूखे होइहें चलत पग दूखे होइहें / महेन्द्र मिश्र

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भोरहीं के भूखे होइहें चलत पग दूखे होइहें
प्यासे मुख सूखे होइहें जागे मगु रात के।
सूर्य के किरिन लागी लाल कुम्हिलाये होइहें
कंठै लपटाय झंगा फाटे होइहें रात के।
आली अब भई साँझ होइहें कवनो बन माँझ सोये होइहें
छवना बेबिछवना बिनु पात के।
महेन्द्र पुकारे बार-बार कौशल्या जी कहे
ऐसे सुत त्यागी काहे ना फाटे करेजा मात के।