भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भोरहीं के भूखे होइहें चले पग दूखे होइहें / महेन्द्र मिश्र
Kavita Kosh से
भोरहीं के भूखे होइहें चले पग दूखे होइहें
प्यासे मुख सूखे होइहें जागे मगु रात के।
सूर्य के किरिन लागे लाल कुम्हिलाए होइहें
कंठे लपिटाए झंगा फाटे होइहें गात के।
आली अब भई साँझ होइहें कहीं बन मांझ
सोए होइहें छवना बिछवना बिनु पात के।
महेन्द्र पुकार बार-बार कोशिला जी कहे, ऐसे
सुत त्यागि, काहे ना फाटे करेजा मात के।