भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भोरे भोरे सूरज आके जब मुस्काये लागल / गणेश दत्त ‘किरण’
Kavita Kosh से
भोरे भोरे सूरज आके जब मुस्काये लागल,
धीरे-धीरे हमरा मन के कमल फुलाए लागल।
कतना दिन पर उनुका के भर नजर निहारत बानी,
का जाने काहे दो देखत नैन जुड़ाए लागल।
रसिया भौंरा उतरी कइसे मन का गहराई में,
कउड़ी का कीमत पर सगरे रूप बिकाए लागल।
घुलल साँप के जहर मतिन कुछ बा शरीर में अपना,
स्वाद नीम के पतई के अब नोक बुझाए लागल।
देखे में आवत नइखे घर में डगराइल दाना,
के नइखे जानत कुत्ता के कौर छिनाए लागल।
काहे के बहरी जइहें कवनो कुटिया में सीता,
लछुमन रेखा में निर्भय दस सीस समाए लागल।