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भोर-बाती / विमलेश शर्मा

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रात देहरी पर एक दिया जलता रहा
और खिड़की पर दो पलकें देर तक टिमटिमाती रहीं
जुगनुओं की सतरंगी लड़ियों में जाने वे
कौनसा चटक रंग खोज रही थीं

रात यों तो चुप थी
पर उल्लास उसके आँचल पर रातरानी-सा गमक रहा था
कैसा अजूबा है यह दुनिया, अमावस की रात चटक रोशनी बरसे
तो उसे लोग दीपावली कहते हैं
पर उसी रात सावन बरसे तो क्या नाम देंगे उसे?

शुभ-अशुभ के संकेत
जो देहरियों पर देर तक ठिठके रहते हैं
सुबह जाने कौन बुहार उन्हें अपनी झोली में डाल लेता है

रात यों ही उड़ते देखा कई कंदीलों को जलते हुए
आसमां हँसता है,
पर जो जलता है वो धुआँ - धुआँ दर्द भी तो सहता है!
अनसुलझी लड़ियाँ उलझती हैं कुछ आंखों में
आखिर क्यों? कोई आँख में टिके रहे तो दीवाली
और आँख मूँद चल दे तो, उत्सवों पर भी
गोवर्धन से दर्द ठहर जाते हैं

माँ की सीख पर
एक मुराद बांधती हूं चौखट पर
बुझे दिये फिर जलाती हूं,रात के अंतिम पहर
जब कईं थकी ख़ुश आंखें सपनीले सफ़र पर होती हैं

ताकि गुज़रते हुए सप्तऋषि ज़रा देर ठहर
फीकी उदासियों को रख लें अपने जादुई झोले में
और उन्हीं आंखों में चमकीला ख़ुश लाल सूरज उगा जाएँ
जो रात चाँदनी बन यहाँ - वहाँ बूँद-बूँद बरसा था !