Last modified on 11 मई 2016, at 09:56

भोर-बेला / अनिल शंकर झा

मचलै भोररिया ऐंगनमा,
लचकै रे निमिया के डार।
तुलसी नें पीन्हलेॅ छै, मोती के गहना,
गेंदा सें हँसी-हँसी, बोलै छै बहना,
कुहरा के चादर उतार।

लेरूआ रं उमकै छै, अखनी ईजोर,
लाले-लाल उषा के अभियोॅ तैं ठोर,
उतरै नें रातकोॅ खुमार।

बगरो रं छपरी पर नपकी किरिनिया,
देखी केॅ मुस्कै छै ननदी मईनिया,
पलकोॅ पर लाजोॅ के भार।