भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भोर आई, मगर है अन्धेरा हुआ / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भोर आई, मगर है अन्धेरा हुआ
जो हुआ भी तो, कैसा सबेरा हुआ।

रात थी तो, किरन की नहीं बात थी
क्यों शिकायत भी होती, अगर रात थी
जब उजाला हुआ तो मेरे हिस्से का
क्यों न मुझको मिला, क्यों न मेरा हुआ।

कैसी मटमैली-सी रौशनी ये मिली
जुगनुओं के घरों की भी क्या रौशनी !
ऐसा दुख है मिला-जो न जाने को है
दुख ये डायन के हाथों है फेरा हुआ।

अब अन्धेरे में रहना है किस्मत मेरी
मर ही जाए उजाले की चाहत मेरी
प्राण मेरे ही मुझको डंसे नाग-से
मेरा जीवन ही जिसका सपेरा हुआ।

नींद आँखों में उड़ती हुई धूल है
स्वप्न मेरा-मेरी कोई बड़ी भूल है
अब तो जीवन मेरा सूखी लकड़ी का घर
आग के घेरे से जो है घेरा हुआ।