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भोर उठि कहु गंगा गंगा, जौ सुख चाहिये भाई

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

भोर उठि कहु गंगा गंगा, जौ सुख चाहिये भाई
पापी एक रहे अति धनि जाय मगह मरी जाई
तकरा तन गिद्ध काग नै खाय, गीदड़ देखि डेराई
गली गेल मांस पहरा करि, हारे रोम-रोम बिलखाई
इ देखु गंगा जी के महिमा उपर पंख फ़हराई
लक्ष्मी पति गिरिजा के नन्दन चलय निशान लगाई

यह गीत श्रीमति रीता मिश्र की डायरी से