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भोर का आह्नान / महेन्द्र भटनागर

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खुल रही आँखें

नयी इस ज़िन्दगी के भोर में !

उठ रहा

उठते दिवाकर संग जन-समुदाय,

भर कर भावना बहुजन हिताय !

अंतर से निकलती आ रही हैं

विश्व के कल्याण की

काली अंधेरी रात के तारों सरीखी,

एक के उपरान्त अगणित शृंखला-सी

नव्य-जीवन की सुनहरी आब-सी

स्वर्गिक दुआएँ !

देख ली है आज

नयनों ने नये युग की धधकती आग,

जिसकी उड़ रहीं चिनगारियाँ

हर ग्राम-वन-सागर-नगर के व्योम में !

उस घास की गंजी सरीखा

जो लपट से ग्रस्त धू-धू जल रही है,

ध्वस्त होता जा रहा

छल, झूठ, आडम्बर !

कि जिसके वक्ष पर यह हो रहा है

रोशनी-सा

दौड़ता अभिनव-किरण-सा आज मन्वंतर !

कि विद्युत वेग भी पीछे

लरज कर रह गया,

लाखों हरीकेनी हवाएँ तक

ठिठक कर रह गयीं;

लाखों उबलते भूमि के ज्वालामुखी तक

जम गये,

बह न पाया एक पग भी देखकर लावा !

गगन के फट गये बादल

व खंडित हो गयी सारी गरज !

भव का भयानकतम भविष्यत् भी

भरे भय भग गया !

विश्वास है

यह अब न आएगा कभी,

ऐसा ग्रहण फिर

ग्रस न पाएगा कभी

जन-चेतना के सूर्य को !

रे आज सदियों रुद्ध जनता-कंठ

सहसा खुल गया

संसार के इस शोर में !

खुल रही आँखें

नयी इस ज़िन्दगी के भोर में !

1950