भोर का तारा... / हुकम ठाकुर
रात की पूछापेखी के बाद
नीले घोड़े पर सवार रोज़
मेरा द्वार खटखटाता है
भोर का तारा
गाँव के निकट बहती नदी
अब गन्दा-सा नाला बन गई है
और सोचने की बेड़ी से मुक्त हो गई है
नदी के पत्थर
शहर के भवनों की नीवें मजबूत कर रहें हैं
उधर गाँव में
बहुत से अन्धेरे कोने हैं बाक़ी
जहाँ रोशनी की चिट्ठी
अभी नहीं पहुँच पाई है
इस बीच भी
पूरब में बादलों की लुका-छिपी के बीच
हीरे जैसा गर्वीला
नीलम जैसा सजीला
माँ की बनाई रोटी जैसा दिखता है
भोर का तारा
वह बहुरंगी मनकों की कण्ठी वाली बूढ़ी औरत
सुरंग को कुछ और मीटर गहरा करके आए
पुरखू के साथी श्रमिकों से कहती है —
आओ हम इस टूटे हुए
ट्रक की ताक़त का गुणगान करें
और अपने घावों को सहलाएँ
देश की रातें
सुरक्षित और उजली करने के लिए
किसी घर में अन्धेरा होता है तो होने दो
लालटेन की दिप्-दिप् रोशनी में
यादों की प्रविष्टियों की
परछाई का पीछा करते-करते
नींद को थका नहीं पाती
जब वह बूढ़ी औरत
तो दिलास का अवतार बनकर आता है
भोर का तारा
छह कोस दूर दरंग
और नमक के बोझे ढोती पीठ से
पसीने ने कभी क्षमा नहीं माँगी
ठठरी हुई पीठ ने
चरवाहे से बरतन
चश्मे से पानी मांगा
निपुण भिखारी की तरह
उसकी चिन्ताओं में घर की निकटता
जगाती रही आस की लौ
जैसे सूखी और खुरदरी ज़मीन पर
पानी की कुछ बूँदें इकट्ठा हो जाएँ
और मछलियाँ उसमें रहने के लिए आ जाएँ
तोहफे में मिली मशाल जब
इतिहास के पोथे-पतरे में समा जाती
एक नई मशाल बन कर जाता
भोर का तारा
शरद की रात
सो गया जब समूचा जंगल
पहरेदारी करता खड़ा था एक नौजवान पेड़
एक दिन
उसने लकड़हारे से कहा —
जंगल मुझसे है
गलत - लकड़हारा बोला -
चूहे चिन्दी के कारोबार में
सदियों पहले मरे हुए ध्वनिहीन द्वन्द्वों की
परछाईयाँ हैं सब
दोनों ने
अपनी-अपनी बात की पुरज़ोर अगवानी की
कोई हल न मिल पा रहा था उनको
परन्तु
लकड़हारे की कुरती के फटे अस्तर से
नज़र आता रहा
भोर का तारा
मैंने देखा
मेले में गाँव के
देवता के अवतरण की मंगल ध्वनि
अबाबीलों के शोर में दब रही थी
बहुत-सी चूसनियों द्वारा चूसे हुए
किसान के पुतले की
व्यापारियों में बहुत माँग थी
नाक पीसने और पोपट होने की प्रवीणता में
सिरचढ़े मुँहलगे शब्दों के
दंगल हो रहे थे
इस बीच
एक नन्हा बालक
खिलौनों की दुकान पर आश्चर्यचकित देख रहा था
हैरानी भरे थैले में झूलता हुआ
भोर का तारा