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भोर की आहट है / राजकुमार 'रंजन'

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चि'ड़़ियों की चींचीं चूँचू चिल्लाहट है
जग जIएँ अब चलो भोर की आहट है

नभ के माथे सूरज की रेखाएँ हैं
सुमनों की स्वागत को उठीं भुजाएं हैं
मलय पवन भी अभिनन्दन को आतुर है
दिनकर से सारे जग को आशाएँ हैं
ठिठुरा जीवन उसमें भी गरमाहट है

जब भी आता भोर नई जागृति लाता
आम्रवनों का बौर नई संस्कृति लाता
जंगल की नीरवता भी अब टूटी है
वनराजों का घोर नई झंकृति लाता
दिशा दिशा की अब टूटी सन्नाहट है

सड़कों पर भी चहल पहल की बारी है
घर-आँगन में गूंज उठी किलकारी है
योगक्षेम भी पूछ रहे बूढ़े बाबा
पहलवान चच्चा ने मूँछ सँवारी है
गाँव गाँव में नगर डगर सरसाहट है

रमुआ! धनुआ! उठो उठो अब भोर हुआ
सूरज निकला जगो जगो! का शोर हुआ
गाय रँभाती जाती अपने खूँटे पर
चारा चरने को आतुर हर ढोर हुआ
प्रकृति नटी में यह कैसी अकुलाहट है

अभी अभी तो सरस हुई सरसों पीली
अभी अभी श्वेताभ हुई तितली नीली
ओसों की बूँदों में स्वर्णिम आभा है
जाग उठी सुमनावलियाँ ढ़ीली ढीली
दिक्-दिगंत में घुली घुली फगुनाहट है

साँस -उसाँसे अभी हुई ताजा ताजा
रगों रगों में अभी लगा बजने बाजा
अभी अभी आया पूरब से स्वर्णिम रथ
बैठा जिस पर सप्तरंग भास्कर राजा
जग में फैली उजियाली झन्नाहट है
जग जाएँ अब चलो भोर की आहट है