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भोर के बेरा / मुरलीधर श्रीवास्तव ‘शेखर’
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छिटकलि किरन फटल पौ नभ पर खिललि अरुन के लाली
खेलत चपल सरस सतदल पर अलिदल छटा निराली।
छित के छोर छुवेला कंचन, किरन बहे मधु धारा
रोम-रोम तन पुलक भइल रे काँपल छवि के भारा।
नया सिंगार साज सजि आइल आज उसा सुकुमारी
किरन तार से रचल चित्र बा, मानो जरी किनारी।
भोर विभोर करत मन आनंद गइल थाकि कवि बानी
छवि के जाल मीन मन बाझल, भइल उसा रसखानी।
तार किरन के के बा बजावत, सुर भर के नभ बीना
ताल रहे करताल बजावत, जल में लहर प्रबीना।
उमड़ल कवि के हृदय देखि के सुन्दर सोन सबेरा
भइल गगन से कंचन बरखा, ई परभात के बेरा।