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भोर के सुरूज उगावे के पड़ी / सूर्यदेव पाठक 'पराग'

भोर के सूरूज उगावे के पड़ी
रात के, मिल के भगावे के पड़ी

नीन में डूबल रहल का ठीक बा ?
अब प्रभाती मिल के गावे के पड़ी

आदमीयत के जे समझे बुजदिली
ओह के ताकत बतावे के पड़ी

ना रही धरती कहीं परती पड़ल
रेत के उपवन बनावे के पड़ी

ना बिना पानी मरी अब आदमी
खोद जल-सोतो ले आवे के पड़ी

काँट कतनो बा करेजा में धँसल
सब भुला के गीत गावे के पड़ी

दुश्‍मनी से बात कहवाँ कब बनल
दोस्ती के राहे आवे के पड़ी