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भोर हो गइल / पाण्डेय कपिल
Kavita Kosh से
खोल द दुआर, भोर हो गइल।
किरिन उतर आइल,
आ खिड़की के फाँक से धीरे से झाँक गइल,
जइसे कुछ आँक गइल,
भीतर से बन्द बा केंवाड़ी त
बाहर के साँकल के पुरवाई झुन से बजा गइल,
आँगन के हरसिंगार, दुउरा के महुआ जस,
चू-चू के माटी पर अलपना सजा गइल,
ललमुनियाँ चहक उठल,
बंसी के तान थोर हो गइल।।
रोज के उठवना जस, ऊठ, अब जाग त
किरिन-किरिन जूड़ा में खोंस ल,
झुनुक-झुनुक साँकल से पुरवाई बोलल जे,
पायल में पोस ल ;
अँचरा से महुआ के गंध झरल
हरसिंगार गंध साँस-साँस में भरल,
अँगना तूँ चहक ललमुनिया अस,
दुअरा हम बंसी बजाईं
कि मन मोर हो गइल।
खोल द दुआर, भोर हो गइल।।