भोर / जय गोस्वामी / जयश्री पुरवार
परिन्दे बैठे हैं । सफ़ेद रौशनी फैली है पत्तियों के ऊपर ।
जैसे कोई शीत की बेटी पीठ पर कोहरे की डलिया लेकर
लौट आई हो चाय-बाग़ान में । क्या और किसी ने देखा उसे जाते हुए इस भोर में ?
नहीं देखा, यह दृश्य है उस विधाता का केवल ।
नहीं तो, किसने भेजा इन परिन्दों को बग़ीचे में इतनी भोर ?
और फव्वारे से किसने भिगो दिया पेड़ों की पत्तियों और घास को ?
शीत की बेटी को अकेले ही उस धुँधले पहाड़ के पास
नीचे उतरते हुए क्या तुमने भी नहीं देखा ? मुझे बताओ सुबतास !
दूर ... चाय बाग़ान से सचमुच में आज क्या फिर कोहरे में तैरकर
चली आई हवा ? और धूप फैल गई पत्तियों पर ?
दूर - दूर तक जग उठे पहाड़ । क्या यह दृश्य सिर्फ़ विधाता का है ?
बस, वही मान लेता है, जो जग उठता है इतनी भोर !
जयश्री पुरवार द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित