भोर / निधि सक्सेना
मैं समुद्र का विस्तार था
अपार अथाह...
साध रखा था स्वयं को मैंने...
कि अपना ही जल उछालता उलीचता...
स्वयंभू अविजित...
कभी ध्यान ही न गया
भोर की प्रथम रश्मि पर...
वो चमकीले सितारे पर बैठ कर आती
लजीली अलसायी...
कभी झिपती कभी झिझकी...
कभी मचली कभी महकी
अबूझी मानमयी...
उसकी आँखों में गीले ओसकण होते
उसे देख कुमुद खिल उठते...
वो मेरी हर हठ पर स्पर्शहीन झरती
मेरा अँधियारा बुहार ले जाती...
परन्तु अब जब पहचान लिया है उसे
प्रतीक्षा के ये पल अंतहीन लगते हैं
कि जब वो मेरी लहरों पर कुछ पल ठहरेगी...
उन झलकों के लम्हों में मैं
अशांत से प्रशांत तक की यात्रा तय करता हूँ...
वो सूर्य से छिटकी प्रथम किरण
मेरे खारे मन पर
सिन्दूरी महावर की छाप छोड़ती जाती है
अनबोली आँखों से जाने क्या कुछ कहती जाती है...