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भोर / महेन्द्र भटनागर

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सृष्टि का कम्बल
हटाता
आ रहा है भोर !

करता अनावृत
सुप्त नग्न पहाड़ियों को,

सकपकाता —
युगनद्ध
झबरीली
झपकती झाड़ियों को।

वे अरे, जाएँ कहाँ
किस ओर !

नटखट भोर की
इस बाल-क्रीड़ा पर
कर रहे
पशु और पक्षी शोर !