भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भोर / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
सृष्टि का कम्बल
हटाता
आ रहा है भोर !
करता अनावृत
सुप्त नग्न पहाड़ियों को,
सकपकाता —
युगनद्ध
झबरीली
झपकती झाड़ियों को।
- वे अरे, जाएँ कहाँ
- किस ओर !
- वे अरे, जाएँ कहाँ
नटखट भोर की
इस बाल-क्रीड़ा पर
कर रहे
पशु और पक्षी शोर !