भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भोर / सुकुमार चौधुरी / मीता दास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक वक़्त था जब
हमारे छोटे और मधुर घर के
बरामदे में लोटती थी
भोर की उजास
और गौरैया व मैना आकर फुदकती रहती थी।
 
माँ स्नान कर भीगी साड़ी पहन
पूजा के फूल चुनती
कामिन दीदी झाड़ू हाथ में लिए
नलघर का रुख करती

मोहल्ले की बहू-बेटियों की ढेंकी में
पोहा कूटने की आवाज़ भी
कुछ पलों के लिए थम जाती
मैं सोए हुए ही यह सब देखता

देखते - देखते ही
कब सो जाता
मेरे जीवन में सब ओर अन्धकार है
रात की ही तरह ।

मूल बांग्ला से अनुवाद — मीता दास