भौतिक विभाजन की दीवार का ध्वंस / प्रभुदयाल मिश्र
हरबिंदर सिंह गिल की लंबी कविता ‘बर्लिन की ढहती दीवार’ मार्क्सवाद की कच्ची नीव का पर्दाफास करती हुई एक योद्धा की आत्मबयानी है।
द्वन्द्वात्मक भौतिकतावाद अपने आप को धरती और जीवन का परम सत्य प्रतिपादित करता हुआ विभाजन, हिंसा, शक्ति, रक्तपात को संसार का यथार्थ स्वरूप बताते हुये एक कट्टर फिरका परस्ती से किसी भी कदर कम नहीं कहा जा सकता। संसार देख चुका है किस प्रकार यह इस युग काम बिस्फोटकारीपरम सत्य एक दुस्स्वप्न से अधिक कुछ नहीं सिद्ध हुआ।
अप्रैल-मई 1989 की तत्कालीन सोवियत यूनियन के राज्य ताजिकिस्तान की राजधानी दुशाम्बे में एक अनुवादक की सहायता से हाकिम शाह ने इधर-उधर देखकर यह पुख्ता करते हुये कि कोई दूसरा नहीं सुन रहा है, मुझसे पूछा कि क्या कभी मास्को की सड़क पर भी कभी ‘हरे राम हरे कृष्ण’ गाते हुये लोग निकल सकते हैं?’, तब मैंने यही उत्तर दिया कि यह प्रश्न ही इसके शीघ्र फ़लितार्थ का सूचक है। इसके दो साल बाद ही रूसी मेहमान अब्दुलसोबिरोव भोपाल में मेरे साथ बैठकर मास्को की सड़कों पर साम्यवाद विरोधी सेना के टेंक पर सवार नागरिकों को निर्भीक खड़ा देखकर वहाँ की चहर दीवार के ध्वंस का आनंद उठा रहे थे!
भारतीय दर्शन परंपरा में महर्षि कपिल द्वारा प्रतिपादित सांख्य दर्शन संसार को द्वन्द्वात्मक तो मानता है किन्तु प्रकृति और पुरुष का यह द्वैत अनादि होकर सर्वथा विधायी है। शैव दर्शन में इसे शक्ति और शिव अथवा बिन्दु और नाद की संयुति कहा गया है। यहाँ वर्चस्व को लेकर न तो प्रतिद्वंद्विता है और न ही संहार से सत्तान्तरण के विस्तार की ललक। किन्तु वर्तमान युग की विगत सदी की यह कितनी बड़ी विडम्बना नहीं थी कि एक पूरी तरह से अपूर्ण और दुराग्रही दर्शन ने लगभग एक तिहाई आवादी को इससे प्रभावित कर पूरे संसार को ही एक अंधकार पूर्ण रसातल का स्वामित्व सौंप उसके तीनों लोकों में आधिपत्य की भविष्यवाणी भी कर दी थी। पूर्व और पश्चिम जर्मनी (आज के दक्षिण और उत्तर कोरिया जैसा!) दो विपरीत ध्रुवों पर स्थित रहकर नारों के सपनों का कटु यथार्थ देख रहा था। जर्मनी के राष्ट्रीय गौरव और विकाश के पोषक नागरिकों ने विकास की सही धारा को जब पहचान कर बिना किसी सरकारी योजना के एक कृत्रिम विभाजन की दीवार को तोड़ा तो अखंड भारत के सेनानी (इस कविता के कवि गिल की तरह) झूम उठे और उन्हें इसमें अपने भावी सपने के साकार होने की कल्पना कुलांचे भरने लगी। आज जब इस सपने में स्याह रंग पोतता चीन हिमालय की बुलंदियों को चुनौती दे रहा है तो निश्चित ही इसकी प्रासांगिकता और अधिक बढ़ गई है।
लगभग 20 पन्ने की इस लंबी कविता में कवि ने चालीस छंदों की सीढ़ियाँ लगाते हुये इसे एवरेस्ट और मानसरोवर के मुहाने तक का रास्ता आसान बनाया है। वह बहुत आश्वस्त है कि अब भारत ही नहीं मानवीय भावनाओं के एक सुसंवेद्य रचनाकार के रूप में भी वह स्वयं इस तरह-
”और जैसे-जैसे बर्लिन की दीवार के
पत्थर टूट-टूटकर गिरने लगे
मुझे ऐसे लगा जैसे अधूरी कविता में
एक बहाव आने लगा है।“
इस कविता में कवि ने एक धुव पद ”पत्थर निर्जीव नहीं हैं“ का बहु आयामी प्रयोग किया है। उसके उसकी सजीवता सिद्ध करते हुये कहा है-
”यदि ऐसा न होता
तो चौराहों पर लगी मूर्तियाँ
और स्तम्भ, स्मारक
पूजनीय, आराधनीय नहीं होते।“
स्वाभाविक है कि कवि सनातन भारतीय उस धारणा का पोषक है जिसके अनुसार ‘कण-कण’ में ईश्वर देखा जाता है, पूजा जाता है। भारत का वेदान्त दर्शन तो यह कहता है कि वास्तविक सत्य तो यह है कि कण-कण में भगवान की बात नितांत अधूरी है। इस प्रकार क्या हम भगवान को भटकते, बहते अपनी पहचान कराने को व्यग्र बताना चाहते हैं? इस दर्शन का सत्य तो यह है कि भगवान के परिपूर्ण और सर्वत्र विद्यमान होने से कण-कण ही भगवान में स्थित है। भगवान के बाहर कुछ होने का प्रश्न ही नहीं उठता। क्या आकाश के बाहर हम किसी पदार्थ या तत्व के अस्तित्व की कल्पना कर सकते हैं?
स्वाभाविक है कि आज का कवि अपने कथन के समर्थन में पुरातात्विक प्रमाण खोजे ताकि एक सच्चा भारतीय उससे गौरवान्वित महसूस करता चले। अस्तु उसका कहना है-
”पत्थर निर्जीव नहीं हैं
वे इतिहास के पन्ने हैं
यदि ऐसा न होता तो
कैसे पता चल पाता
मोहंजोदड़ो और हरप्पा का
कि उसमें पलती थी ऐसी संस्कृति
जो आज के समाज में
बनकर रह गई है मात्र एक स्वप्न!
कवि पत्थर में कला, कविता, नृत्य और भाव लास्य का अनुभव करते हुये आगे कहता है-
”दक्षिण के मंदिरों में बनी
ये पत्थर की मूर्तियाँ
जीवंत भरत नाट्यम की
मुद्राएँ कैसे होतीं!“
इसी प्रकार संगीत के शिलालेख-
”यदि ये पत्थरों की मूर्तियाँ न होती
संगीत की यह धरोहर
........
प्यासी ही रह गई होती!“
यह कहा जा सकता है कि पराक्रमी कवि हरविंदर सिंह गिल बर्लिन की दीवार के ढहाए गए पत्थरों को स्मारकों की तरह न केवल संग्रहीत कर चलते हैं, वे अपनी भावना के सूत्र में उन्हें फूलों की तरह सँजोकर संस्कृति, संस्कार और व्यापक मानवीय सरोकारों का हार बनाकर विश्व मानवता को पहनाना चाहते हैं, अतः उन्हें साधुवाद।
अध्यक्ष, महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्, 35 ईडनगार्डन, चूना भट्टी, कोलार रोड भोपाल, 462016
(agastyasansthganam@gmail.com)